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________________ जैनत्व जागरण..... ११५ इन व्रात्यों की साधना भूमि पूर्वी भारत के मगध, अंग, बंग और कलिंग के क्षेत्र थे। यद्यपि ये लोग देश के और भागों में भी फैले हुए थे लेकिन उनकी कर्मभूमि सदियों तक पूर्वी भारत ही रही । इस क्षेत्र के ब्राह्मणों के लिये भी ब्राह्मण सूत्रों में इस बात का उल्लेख है कि प्राच्य देश के ब्राह्मण वेद और याग-यज्ञ को आसानी से छोड़ देते हैं अर्थात् पतित हो जाते हैं । ज्ञातव्य है कि भगवान महावीर के प्रमुख गणधर इन्द्रभूति, वायुभूति, अग्निभूति, सुधर्मा स्वामी आदि मगध के प्रसिद्ध ब्राह्मण विद्वान थे जिन्होंने निर्ग्रन्थ धर्म को अपनाया था । जैनेतर ग्रन्थों में प्राच्य देश में ब्राह्मणों का जाना निषिद्ध माना गया था क्योंकि ये श्रमण संस्कृति से प्रभावित क्षेत्र थे । उनमें यहाँ तक लिखा है कि काशी में कोई कौवा भी मरे तो सीधा वैकुष्ठ जाता है लेकिन यदि मगध में मनुष्य भी मरे तो गधे की योनि में जन्म लेता है। इससे यह स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है कि पूर्वी भारत उस समय एक ऐसा आईना था जिसके सामने जाने पर व्यक्ति को अपना सही चेहरा दिखाई दे जाता था । ब्राह्मण अपने को वेद ज्ञानी मानते थे लेकिन प्राच्य भूमि में जाकर वहाँ की संस्कृति और ज्ञान के वैभव के दर्शन से उनको अपना ज्ञान उसके सामने न्यून दिखाई पड़ता । इसीलिए आइने में वस्त्र पहने हुए भी वस्त्र विहीन दशा यानि अपने प्रकृतस्वरूप के दर्शन होने के भय से ब्राह्मणों को वहां जाना निषिद्ध लिखा गया। स्वर्गीय नेमिचंदजी जैन के शब्दों में- "अंग, बंग, मगध, उत्कल को छोड़ जो आर्य थे उनमें वस्तुतः धर्म की रागात्मक छवि का ही विकास अधिक हुआ था, उसका चिन्तनात्मक / ज्ञानात्मक / दार्शनिक पक्ष उनमें पूरी तरह खुल / उघड़ नहीं पाया । जिसे हम धर्म का चिन्तन-पक्ष कहते हैं, उसका पटोत्थान मुख्यतः मगध, बंग, उत्कल में ही हो सका । व्रात्यों को लेकर आर्यों का जो दृष्टिकोण था, वह भी अतिरंजित / पूर्वाग्रहयुक्त था । यह भ्रम ब्राह्मण ही अध्ययन, मनन, चिन्तन का अधिकारी है, मगध / विदेह ही धरा पर ही मिथ्या साबित हुआ और लड़खड़ा कर ध्वस्त हो गया । यहाँ यह सिद्ध हो सका कि क्षत्रिय भी अध्यात्म के प्राज्ञ वेत्ता हैं / हो सकते हैं, बल्कि इससे कहीं अधिक, जितने तत्कालीन ब्राह्मण
SR No.002460
Book TitleJainatva Jagaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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