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________________ जैनत्व जागरण..... ११६ थे । इन्द्रभूति आदि का महावीर के अनेकान्तात्मक प्रतिपादन के प्रति नतशीश होना इसी का ज्वलन्त प्रमाण है ।" इसीलिए वैदिक ब्राह्मणों का रुख इस क्षेत्र के निवासियों के प्रति शत्रुतापूर्ण था । ऋग्वेद में वर्णन है कि " ऋषियों के प्रति द्वेष रखने वालों को अपना शत्रु समझो, जो वेद से भिन्न व्रत वाले हैं दण्डित हो, यज्ञ परायण को यज्ञहीनों का धन प्राप्त हो ।" ये प्राच्य भूमि के निवासी कौन थे इस विषय में - ऋग्वेद का अध्ययन करने पर एक विशेष जाति के विषय में पता चलता है जो हिरण्य और मणि द्वारा शोभायमान थी । " व्यवसाय में दक्ष, जो रूप और सन्तान पर गर्व करती है, जो धनी है, जो खाने-पाने में रूचिसम्पन्न है, जो धन की खोज में सामुद्रिक यात्रा करते हैं, लेकिन वे इन्द्र को नहीं मानते, जो देवहीन थे, यज्ञोविहीन थे, जो देव निन्दक थे, जो ऋषियों को दान नहीं देते, जिनका दर्शन भी देवविहीन है ।" इस जाति को " पणि के नाम से अलंकृत किया गया है । इन समृद्धशाली पणियों से ही सम्भवतः हमारी प्राचीन मुद्रा का नाम पण एवं वाणिज्य संसार का नाम पण्य हुआ । भारतवर्ष में प्राचीन युग से मुद्रा धातु के निर्माण के लिए आवश्यक ताम्र धातु सम्पदा इन पणियों के अधिकार में थी एवं भारतवर्ष की तत्कालीन अर्थ व्यवस्था में इनकी मुद्राओं का अत्यधिक महत्व था । साधारणतः धातु सम्पदा इन पणियों के अधिकार में थी एवं भारतवर्ष की तत्कालीन अर्थ व्यवस्था में इनकी मुद्राओं का अत्यधिक महत्व था । साधारणतः धातु सम्पन्न लोग हमेशा ही कृषि पर आश्रित लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक समृद्ध एवं सम्पन्न होते हैं । ऋग्वेद में इन्हें सप्तसिन्धु के अंचलों के पार प्राच्य देश का निवासी बताया है और इनको वश में करने के लिये सूक्तियों की रचना की गयी । इससे यह स्पष्ट होता है कि ऋग्वेद की रचना के पूर्व में ही पूर्वी भारत में एक उन्नतिशील सभ्यता निवास करती थी जो यज्ञ और हिंसा विरोधी थी और प्राचीन निर्ग्रन्थ धर्म से अभिन्न थी । (ऋग्वेद ६ ६१|१, १/३६/१६, १।३९१०, १।१७६/४, १।१७५/३, १/३३/५, २/२६ १, ५/२०१२, २२३८, |६|६१|१)
SR No.002460
Book TitleJainatva Jagaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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