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जैनत्व जागरण......
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चिन्ह आज भी वर्तमान है । यहाँ एक ध्वन्सावशेष है जो वसुदेव के स्थान के नाम से जाना जाता है । इस सन्दर्भ में श्री हरिप्रसाद तिवारी और नृसिंह प्रसाद तिवारी की गवेषणा महत्वपूर्ण है जिसके अनुसार
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आर्कियोलॉजिकल सर्वे के अनुसंधान से यह स्पष्ट होता है कि ताम्रलिप्त से पाटलीपुत्र के पथ पर एक प्राचीन वाणिज्य केन्द्र जिसका नाम पाण्ड्रा (जिला धनवाद) है । प्राचीन पुण्ड्र राजा और उनके दौहित्र महापुण्ड्र की स्मृति से जुड़े प्राचीन नगर का ही अवशेष है यह पाण्ड्रा । पाण्ड्रा बराकर शहर से प्रायः ७ मील पश्चिम में स्वनाम से आज भी विख्यात है । पाण्ड्रा केवल एक बड़ा (धनबाद जिले का सबसे बड़ा ) ग्राम ही नहीं यह एक परगने का सदर भी है । वर्तमान काल की दलीलों में भी परगना के रूप में पाण्ड्रा का उल्लेख किया जाता है । बराकर से धनबाद तक बराकर और दामोदर नदी का मध्यवर्ती भू-भाग पाण्ड्रा परगना के अन्तर्गत है । अंग्रेज शासनकाल के प्रारम्भ में यहाँ के प्राचीन मल्लराज वंश को खदेड़कर घाटवाल राजवंशियों ने यहाँ अंग्रेजों के करद राजवंशों की स्थापना की । इन घाटवाल राजवंशियों को आज भी राजा कहा जाता है एव इनके बहुत से परिवार इस अंचल में निवास करते हैं। घाटवाल का अर्थ है - घाट अर्थात् पार्वत्य पथ रक्षाकारी । इस सम्प्रदाय पर बहुत प्राचीनकाल से ही इस ताम्रलिप्त मगध की संयोगकारी वाणिज्य - पथ की सुरक्षा का दायित्व था । इस अंचल के बंगाली वाणिकों की एक पदवी घाँटी या घाटी है जो इस पार्वत्य वाणिज्य पथ के वाणिज्य केन्द्र से उद्भुत है । पाण्ड्रा गाँव लोक संख्या एवं आयतन दोनों ही दृष्टि से इस अंचल का सबसे बड़ा गाँव है और अकेला ही एक पंचायत है । गाँव का रास्ता आधुनिक नगरों की तरह परिकल्पित है ।
वसुदेव हिण्डी में राजा पुण्ड्र और समग्र राज परिवार को जैन धर्म के पृष्ठपोषक रूप में वर्णन करने से स्वभावतः ही लगता है कि पुण्ड्र राजा की यह राजधानी प्राचीन जैन अध्युषित अंचल में थी ।
इसी प्रसंग में यह भी उल्लेखनीय है कि पुण्ड्रा का अवस्थान ताम्रलिप्त से १०० मील उत्तर - पश्चिम में (४५°) है, हवेनसांग ताम्रलिप्त से छः सौ ली अर्थात् एक सौ मील उत्तर-पश्चिम में किलिना-सुफलाना या कर्ण