SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनत्व जागरण..... १४७ सुवर्ण गए थे। आराय मंजुश्री मूलकल्प के मत से पुण्ड्रवर्धन में शशांक की राजधानी थी । यही पाण्ड्रा मंजुश्री मूलकल्प वर्णित पुण्ड्रा नगरी है। कृष्ण मिश्र के प्रबोध चन्द्रोदय नाटक में जो राढ़ देश की अपरूपा रढ़ापुरी की बात आती है वह भी सम्भवतया यहीं पाण्ड्रा या पॉरड़ा (पाँड़रा) कोही निर्देश करती है । इसी पाण्ड्रा परगना से वर्द्धमान पर्यन्त अंचल को शायद पुण्ड्र वर्द्धमान अंचल कहा जाता था । यहाँ चारों ओर प्राचीन स्तूप, मूर्ति, मन्दिर के भग्नावशेष और ध्वंस स्तूपों का समाहार है । वासुदेव स्थान और कपिलेश्वर मन्दिर का विशालत्व दर्शनीय है । मन्दिर का प्रांगण समतल से प्रायः बीस. फुट ऊँचा है। चारों पार्श्व प्राचीरों से घिरे हुए है। विशाल प्रांगण में छ: विशाल प्रस्तर निर्मित मन्दिर वर्तमान है। इस पाण्ड्रा परगना की पूर्वी सीमा में है पश्चिम बंग की श्रेष्ठ पुराकीर्ति बराकर के सिद्धेश्वरी के मन्दिर आदि । पूर्वोत्तर कोण में कल्याणेश्वरी का प्रसिद्ध (माँ का स्थान) माइथन, दक्षिण में है तेलकूम्प के प्रसिद्ध मन्दिर । प्राग ऐतिहासिक काल से मगध श्रमण संस्कृति का प्रधान केन्द्र था। यहाँ का कण-कण तीर्थंकरों के श्रमणों के चरणों से पवित्र था । यहीं पर तीर्थंकरों तथा मुनियों ने प्रवज्या ग्रहण की, केवलज्ञान और निर्वाण प्राप्त किया था। श्री हीरालालजी दूगड़ ने लिखा है- “मगधदेश का जैनधर्म और जैनसंस्कृति के साथ अत्यन्त प्राचीन काल से ही अटूट घनिष्ठ संबंध है। मगध का अस्तित्व और उसका इतिहास, उसकी संस्कृति, श्रमणपरंपरा, अर्धमागधी प्राकृत आगम साहित्य, पंचागी, जैनधर्म के स्थापत्य और इतिहास के अभिन्न अंग हैं । अतः यह कहा जा सकता है कि मगध ने यदि जैनधर्म को पोषण दिया है और उसका वर्तमान इतिहास दिया है तो जैनधर्म ने भी मगध को सर्वतोमुखी उत्कर्ष साधन दिया है और उसे विश्वविश्रुत बना दिया है।" - ~
SR No.002460
Book TitleJainatva Jagaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy