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________________ १६४ जैनत्व जागरण...... अमान्य है। यह "सभानाथ" की नग्न मूर्ति प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभनाथ की है। "कल्पसूत्र" में श्री ऋषभनाथ ने जब दीक्षा ग्रहण की थी उस समय का वर्णन इस प्रकार है : "यावत् आत्मनैव चतुर्माष्टिकं लोचं करोति, चतुष्टभिर्मुष्टिभिलोंचे कृते सति अविशिष्टां एकां मुष्टिं सुवर्णवर्णयोः स्कन्धयोरुपरि लुठंति कनकलशोपरि विराजमानानां नीलकमलमिव विलोक्य हृष्टचित्तस्य शक्रस्य आग्रहेण रक्षत्वान् ।" (कल्पसूत्र व्या. ७ पृ. १५१ देवचन्द्र लालभाई ग्रंथांक ६१) अर्थात् "श्री ऋषभनाथ प्रभु ने गृहत्याग कर दीक्षा ग्रहण करते समय अपने आप चार-मुष्टि लोच की । चार-मुष्टि लोच कर लेने पर सोने के कलश पर विराजमान नीलकमल-मालाके समान बाकी रहे हुए मुष्टि प्रमाण सुनहरी बालों को प्रभु के कंधों पर गिरते हुए देख कर प्रसन्न चित्त वाले इन्द्र के आग्रह करने से प्रभु ने (अपने सिर पर) रहने दिये ।" इस से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि यह मूर्ति जिसे "सभानाथ" की मूर्ति के नाम से उल्लेख किया गया है, वह प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभनाथ की ही है और उनके मस्तक पर जो जटाएं हैं वे पांचवी मुष्टि में जैन, बौद्ध और वैदिक धर्म थी प्रचलित थे । ऐसी मान्यता की पुष्टि के लिये कई कारण उपलब्ध हैं । ईसा पूर्व प्रथम (दूसरे मतानुसार द्वितीय) शताब्दी में कलिंगाधिपति खारवेल ने उत्तर एवं दक्षिण भारत में एक विस्तृत साम्राज्य स्थापित किया था । उस की हाथीगुफा लिपि (शिलालेख) से ज्ञात होता है कि वह जैनधर्मावलंबी था एवं जैनधर्म की उन्नति के लिये वह विशेष प्रयत्नशील था । अपने राज्य के तेरहवें वर्ष में उस ने कलिंग नगर में जैन संप्रदाय की एक सभा निमंत्रित की थी तथा इस सभा में जैनशास्त्र समह की आलोचना की गयी थी। इसी वर्ष उसने जैन मुनियों का श्वेतावस्त्र भेंट किये थे । इस से एक वर्ष पहले नन्दराजा द्वारा कलिंग से ले जायी गयी हुई एक जैनमूर्ति को यह मगध से पुनरुद्धार कर वापिस कलिंग में लाया था । इन सर्व प्रमाणों से स्पष्ट ज्ञात होता है कि उस समय कलिंग राज्य
SR No.002460
Book TitleJainatva Jagaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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