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________________ जैनत्व जागरण...... स्वस्तिक को मंगल का प्रतीक माना जाता है । कहीं कहीं स्वस्तिक को अनन्तकाल का प्रतीक और शांति का प्रतीक भी माना गया है । तीर्थंकर अनन्त ज्ञान के स्वरूप होते हैं। चारों गति से मुक्ति दिलाने वाले होते हैं जो स्वयं भी मुक्त होते हैं और सभी को मुक्ति का पथ दिखलाते हैं I चौबीस तीर्थंकरों का क्रम और काल का चक्र हमेशा चलाये मान रहता है । इसी लिये जैन धर्म में स्वस्तिक को चारों गति तथा अनन्तकाल का प्रतीक भी माना गया है । ८२ WW तीर्थंकर ही अहिंसा के, शांति के और मंगल के प्रतीक है, कल्याणकारी है। चंदन या रोली से जो हम स्वस्तिक बनाते हैं और उसके चारों खानों में विराजमान २४ तीर्थंकरों के चरणों में ही टीकी लगाकर तीर्थंकरों की पूजा करते हैं । परावर्त में भी टीकी लगाकर सभी सिद्ध आत्माओं की भी पूजा करते हैं । मनुष्य गति, देव गति, तिर्यंच गति, नरकं गति रुपी चारो गतियों में भवभ्रमण कर रही हमारी आत्मा पंचम मोक्ष गति में तीर्थंकर भगवन्तों के द्वारा दिखाए मार्ग से उनकी ही भांति संसार चक्र से मुक्ति की ओर अग्रसर हो, ऐसे मंगल भाव से रचा गया स्वस्तिक भी मंगल आकृति है कितना अद्भुत है आठ लकीरों से बना हुआ यह आकार, कितने ज्ञान के ज्ञाता होगे भरत महाराज जिन्होंने स्वस्तिक आकार में चौबींस तीर्थंकरों को स्थापित किया, उनको मेरा शत् शत् नमन् । जो भी इन तीर्थंकरों के आराधक रहे वे स्वस्तिक को अपने साथ जहाँ भी गये ले गये अतः पूरे विश्व में स्वस्तिक को सबसे शुद्ध, पवित्र और मंगलकारी माना गया है । सिन्धु घाटी सभ्यता भी तीर्थंकर परम्परा का प्रमाण देती है । वहाँ उत्खनन से प्राप्त तीर्थंकरों की योगमुद्रा तथा स्वस्तिक सीलों की प्राप्ति से यह पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है कि तीर्थंकरों की पूजा उस समय भी प्रचलित थी । ३०० ई. पू. सम्प्रति महाराज के काल के सिक्को में भी हमें स्वस्तिक परावर्त और तीन ढिगली (ढेरी) का रूप चित्रित मिलता है । गौतमरास में वर्णन है कि अष्टापद पर चक्रवर्ती भरत ने नयनाभिराम चतुर्मुखी प्रासाद निर्मित किया था । श्री धर्म घोष सूरि जी ने भी लिखा है कि भरत चक्रवर्ती ने सिंह निष नामक चतुर्मुख चैत्य बनाया था और
SR No.002460
Book TitleJainatva Jagaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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