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जैनत्व जागरण.....
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चारों दिशाओं में चार, आठ, दस, दो (चत्तारि अट्ठ दस दोय) के क्रम से चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाओं की स्थापना की थी । इसी पर्वत पर गौतम स्वामी ने सिंह निषधा चैत्य के दक्षिण द्वार से प्रवेश कर पहले सम्भवनाथ, अभिनन्दन स्वामी, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ स्वामी आदि चार प्रतिमाओं को वंदन किया, फिर प्रदक्षिणा देते हुए पश्चिम द्वार से आठ तीर्थंकरों सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ स्वामी, सुविधिनाथ, शीतलनाथजी, श्रेयांस, वासुपूज्य स्वामी, विमलनाथ और अनन्तनाथ को तत्पश्चात् उत्तर द्वार से दस तीर्थंकरों धर्मनाथ, शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ, श्री मल्लिनाथ, मुनिसुव्रत स्वामी, नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और वर्द्धमान महावीर को और फिर पूर्व द्वार से दो तीर्थंकरों अजितनाथ और ऋषभदेव के बिम्ब को वंदन किया । आज भी कैलाश की परिक्रमा इसी रूप में की जाती है। लेकिन बोंपो धर्म के अनुयायी कैलोश की परिक्रमा पूर्व से प्रारम्भ कर उत्तर पश्चिम तथा अन्त में दक्षिण की तरफ आते हैं । स्वस्तिक का शब्दकोश में अर्थ है चार मार्गों का मिलन या चार प्रकोष्ठ वाला चतुर्मुख प्रासाद या भवन । किसी भी चतुर्मुख महल को रेखाचित्र से दर्शाने पर यह स्वस्तिक आकार का ही दिखेगा । इसरो (Isro) के वैज्ञानिक डॉ. पी. एस. ठक्कर के अनुसार - कहीं-कहीं अति प्राचीन नगरों और भवनों का आकार स्वस्तिक प्रतीक के आधार पर होता था । बावन पुराण में लिखा है
ततश्चकार शर्वस्य गृहं स्वस्ति कलक्षणम् योजनानि चतुः षष्टि प्रमाणेन हिरण्मयम् ॥२ दन्ततोरण निर्वृहं मुक्ताजालान्तरं शुभम् । शुद्ध स्फटिक सोपानं वैडूर्य कृतस्पकम् ॥३
विश्वकर्मा ने भगवान् शिव के लिये कैलाश पर स्वस्तिक लक्षण वाला गृह निर्मित किया था । जो हिरण्यमय तथा और प्रमाण में चौसठ योजन के विस्तार वाला था ॥२
उस गृह में दन्त तोरण थे और मुक्ताओं के जालों से अन्दर शोभित हो रहा था जिसमें शुद्ध स्फटिक मणि के सोपान (सीढ़ियाँ) थीं जिनमें वैडूर्य