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जैनत्व जागरण.....
मणि की रचना थी ॥३
कैलाश यात्रा से आने के बाद इन सारे उल्लेखों के गहन अनुसंधान से शोधकों को एसा प्रतीत हुआ है कि मन्दिर में चावलों द्वारा बनाया गया अर्द्ध चन्द्र सम्यग् ज्ञान दर्शन चारित्र के प्रतीक के रूप में तीन ढिगली (ढेरी) और स्वस्तिक सम्पूर्ण कैलाश क्षेत्र का प्रतिबिम्ब है। मंदिरों में चावलों के सर्वप्रथम परावर्त आकार में अर्द्धचन्द्र बनाते है जो अनन्त का प्रतीक है क्योंकि उसमें अनन्त-अनन्त मोक्षगामी आत्माएँ बसी हैं। इसी लिये इसको सिद्ध शिला का प्रतीक भी माना जाता है। यह कहा जाता है कि कैलाश पर्वत के उत्तर में शुद्ध आत्माएँ निवास करती है । ऋषभदेव के निर्वाण के पश्चात् इन्द्र ने वहाँ तीन स्तूप बनाये थे। पहला भगवान का, दूसरा उनके परिवारिक पुत्र और पौत्रों का, तीसरा अनगारों यानि साधुओं का जिन्होंने ऋषभदेव के साथ सिद्ध गति प्राप्त की थी। इन्हीं तीन स्तूपों को ही हम तीन ढिगली के रूप में बनाते हैं। भरत द्वारा बनाये गये सिंह निषध प्रासाद के प्रतीक के रूप में स्वस्तिक बनाना आज भी हमारी परम्परा में जीवन्त
कैलाश के नजदीक होने के कारण तिब्बत में जो स्वस्तिक का रूप हमें देखने को मिला उसमें चारों खानों में टीकी लगायी हुई थी । दूरस्थ स्थानों में जिसने जैसे कहा उसे सुनकर और इसका धार्मिक उपयोग देखकर इसे मंगल चिन्ह मान लिया । परिणाम स्वरूप दूरस्थ स्थानों के देशों में टीकी लगाने की परम्परा नहीं है और आकार में सूक्ष्म परिवर्तन देखने को मिलता है। स्वस्तिक को जहाँ-जहाँ जिस रूप में पूजा गया उसको किसी
भी तरह से देखे तो हमें स्वस्तिक आकार में भवन और उसमें चौबीस तीर्थंकर ही विराजमान दिखाई पड़ते हैं। भले ही आज हम तीर्थंकरों की बात भूल गये है लेकिन उनकी स्मृति शान्ति और शुभ, मंगल एवं कल्याणकारी तथा सूर्य के रूप में सारे विश्व में स्वस्तिक के प्रतीक के रूप में जीवन्त है। वैदिक साहित्य में भी स्वस्तिक प्रकार का भवन सिर्फ देवों और राजाओं के लिये उपयुक्त बताया गया है।
कैलाश क्षेत्र के उपग्रह द्वारा लिये गये चित्रों से जो चतुर्मुख स्ट्रक्चर