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________________ जैनत्व जागरण...... १९० सकता है ! अवश्य कहीं न कहीं तो जैनों का वास होना ही चाहिए । उस दिन वे दोनो गुरू शिष्य नीचे उतरे । पर एक, वाक्य बार बार कानों में “अथडाने” लगा कि यहाँ जैन होना चाहिए। दूसरे दिन सुबह दोनों ने छः विगई त्याग का पक्चक्खाण कर संकल्प किया "जब तक यहाँ के जैनों का अनुसंधान नहीं मिलता है, तब तक हमारा छ विगई त्याग रहेगा । बस उस दिन से गुरु-शिष्यकी शोध प्रारंभ हो गई । रुखा - - सूखा खाना और रास्ते में जो कोई मिल जाए, उससे इतना पूछ परछ करना कि इस इलाके में कोई आदमी या कोई समाज हो, जो निरामिष आहर करते है । 1 थोडे दिनों में वे दोनों गुरूमहाराज विहार करते-करते महुदा पहुंचे और वहां एक राजस्थानी भाई के घर पर उतरें । वह भाई जैन नहीं था, मगर जैन-धर्मको भली भांति जानता था । उस भाई से जब निरामिष भोजियों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बताया ! महाराजजी यहाँ से तीन कि.मी. दूर एक गांव है, वहाँ सराक जाति नामकी एक जाति है जो कभी आमिषभोजन नहीं करती । उसी दिन राजस्थानी भाई को लेकर पू. मंगल विजयजी एवं प्रभाकर विजयजी महुदा से " कुमारडी" पहुंचे । इस प्रकार सहसा गांवमें महात्माजी का आगमन हुआ देखकर, गांवके लोग महात्माके दर्शन करने आने लगे । पू. महाराजजीके द्वारा दर्शनार्थियों से जब नाम, गौत्र एवं जाति पूछी गयी तो, गोत्रों में मिले आदिदेव, धर्मनाथ, एवं अनंतनाथ भगवानके नाम। दोनो महाराजों के अन्दर अब कोई शंका का अवकाश न रहा, उन्हें मिल गया उस प्रान्त के जैनों का पता । पश्चात् मुनिद्वय कलकत्ता जाकर, इनके इतिहास की छान बीन किया कि सराकों का पूर्व इतिहास मिल गया । ये सराक मूलतः पार्श्वसंतानीया श्रावक है । एवं आज भी जैनो के आचार इनके अंग-अंग में भरे हुए है 1 6 सराकोंकी मातृभाषा " बंगला " है । बंगालमें जहाँ - ३६ कॉम के लोग मांसाहार करते है वहाँ सराकजाति ही एक मात्र निरामिष भोजी है । जैन धर्मका बीज मंत्र "अहिंसा" सराकों के खून में है । अतः ये लोग कट्टर निरामिष है । इस विषय पर महिलाए तो इतनी निष्ठावती है, सब्जी या फल संभारते समय " काटा" शब्द का उच्चारण कभी नहीं करती । यदि
SR No.002460
Book TitleJainatva Jagaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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