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जैनत्व जागरण ......
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(कल्पसूत्र व्या० ८ पन्ना २५५-५६ आत्मानंद जैन सभा भावनगर) अर्थात्-जैनाचार्य भद्रबाहु स्वामी के चार शिष्य थे । गोदास, अग्निदत्त, जिनदत्त, सोमदत्त । स्थविर गोदास से गोदास नाम का गण निकला तथा इस गण में से ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षिया, पौंड्रवर्धनिया और दासी खर्व्वटिया ये चार शाखायें निकली ।
भद्रबाहु स्वामी सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के समकालीन थे । उन के शिष्य गोदास के नाम से गोदास गण की स्थापना हो कर उस से जो उपर्युक्त चार शाखाएं निकली इन का समय ईसा पूर्व तीसरी चौथी शताब्दी ठहरता (१३३) से ज्ञात होता है कि ईसा की चतुर्थ शताब्दी से पुष्करणा (बांकुड़ा जिल्ला अन्तर्गत वर्तमान पोखरण नामक ग्राम का अधिपति चन्द्रवम्मन चक्रस्वामी (अर्थात् विष्णु) का उपासक था ।
गुप्तयुग में (ई. स. ३१९ से ५५ ) इस देश में ब्राह्मणधर्म की अवस्था कैसी थी । अर्थात् किस किस देवता के लिये मंदिर - निर्माण और उपासना होती थी; इस विषय की संक्षिप्त आलोचना की है । फाहियान के विवरण से यही अनुमान होता है कि उस समय इस देश में बौद्धधर्म भी यथेष्ट प्रबल था तथा संभवत: सातवीं शताब्दी की अपेक्षा प्रबलतर ही था । दुःख का विषय है कि फाहियान ने (ई.स. ४०५ स ४११) इस देश के धर्म संप्रदायों के विषय में विस्तृत उल्लेख नहीं किया । उस ने मात्र चम्पा (भागलपुर) और ताम्रलिप्त का सामान्य विवरण ही लिखा है । (Legge. P. 100)
गुप्तयुगं में इस में जैन संप्रदाय की अवस्था कैसी थी, इस विषय का कोई विशेष विवरण नही पाया जाता । किन्तु उस समय भी निश्चय ही जैनधर्म का खूब अधिक प्रभाव था । नहीं तो ह्यूसांग के समय बंगाल में जैन धर्म का इतना प्रभाव होना संभव न था । पहाड़पुर में ( राजशाही जिले से ) प्राप्त हुए ताम्रपत्र से मालूम होता है कि ई.स. ४७९ में नाथशर्मा एवं रामी नामक ब्राह्मण दंपत्ति ने पौंड्रवर्धन (बगुड़ा जिलांतर्गत वर्तमान महास्थानगढ़ निकटवर्ती "बटगोहाली" (आधुनिक गोमालभिटा पहाड़पुर के समीप) नामक स्थान में जैनविहार की पूजा अर्चनार्थ सहायता करने के उद्देश