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जैनत्व जागरण.....
से कुछ भूमि दान दी थी। उस समय उस विहार में श्रमणाचार्य निग्रंथ गुहनन्दी के शिष्य प्रशिष्य मौजूद थे। (E.P. Ind. XX.P.P. 61.63) इस से ज्ञात होता है कि गुप्तयुग में जैनधर्म मात्र सुप्रतिष्ठित ही नहीं था किन्तु धनवान ब्राह्मण भी जैनधर्म और जैनाचार्यों के प्रति अनुराग प्रगट करते थे एवं आवश्यकता के लिए भूमिदान कर सहायता करते थे। इस का विशेष उल्लेख करने का प्रयोजन यह है कि बटगोहाली का यही जैन विहार ईसा की पांचवी शताब्दी के अन्तिम भाग में पौंड्रवर्धन नगर के समीप अवस्थित था तथा सातवीं शताब्दी के प्रथम चरण में भी घूसांग ने पौंड्रवर्धन प्रदेश में बहुत निग्रंथ देखे थे।
संभवतः ईसा पूर्व ३०० वर्ष में पाटलीपुत्र नगर में जैन संप्रदाय की एक सभा निमंत्रित की गयी थी, एवं इस सभा में जैनों के धर्मशास्त्र समूह को भलीभांति वर्गीकरण तथा सुरक्षित किया गया और उस के उत्तरकाल में इन शास्त्रों के लुप्त होने का प्रसंग आने पर भी ये लुप्त होने से बचा लिये गये क्योंकि गुप्त सम्राट के अभ्युदय के चरम समय ई.स. ४५८ गुजरात के अन्तगर्त वल्लभी नगरी में एक और सभा निमंत्रित की गयी । जिसमें जैनधर्म शास्त्रों को फिर से सुरक्षित व लिपिबद्ध किया गया । यही आगम शास्त्र समूह वर्तमान जैनधर्म का इतिहास रचने के लिए इतिहासकारों के लिये प्रधान साधन है। पांचवी शताब्दी में इस शास्त्र समूह की कोई नवीन रचना नहीं की गयी थीं किन्तु प्राचीन आगम साहित्य समूह को ही मात्र लिपिबद्ध किया गया था । वही कारण है कि इस शास्त्रसमूह से ही बहुत प्राचीन इतिहास जाना जा सकता है। किन्तु स्थान स्थान पर इन ग्रंथों में उत्तरकालीन प्रभाव भी दिख पड़ता हैं।
इसी शास्त्र समूह में जैन इतिहास का एक प्राचीन प्रामाणिक ग्रंथ कल्पसूत्र है। इसी ग्रंथ में जैनधर्म की भिन्न भिन्न शाखा प्रशाखाओं का नाम जाने जा सकते हैं । उन्हीं शाखाओं में से यहां पर ताम्रलिप्तिका कोटिवर्षिया, पौंड्रवर्धनिया एवं दासी खर्व्वटिया का विचरण हुआ ।
__ हमारी यह भी धारणा है कि कलिंगदेश में खंडगिरि, उदयगिरि में (दासी) कळटिक-खर्चटिका विशेषतया उल्लेखनीय है १. ताम्रलिप्ति