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________________ ४४ जैनत्व जागरण.... "आस्टिक और द्रविडों में आर्यों के यहाँ आगमन के पूर्व (ई. पू. १५००) देवताओं और वीरों की दंतकथाएँ प्रचलित थी । ये कथाएँ आर्य भाषा में बहुत समय बाद आयी जिनमें आर्य देवताओं और मान्यताओं के अनुसार सुधार या परिवर्तन हुआ और वे आर्यों के देवों एवं वीरों के रूप में बदल गए । पुराणों की कथाएं भी इसी प्रकार पैदा हुई । इस प्रकार हम देखते हैं कि वास्तविकता के मूल्यांकन के लिये निरपेक्ष दृष्टि से ब्राह्मण साहित्य का गवेषणापूर्ण अध्ययन करने की आवश्यकता है । आदिनाथ का आदिधर्म आदि तीर्थंकर ऋषभदेव केवल भारतीय उपास्य देव ही नहीं भारत के बाहर भी उनका प्रभाव देखा जाता है । विश्व की प्राचीनतम संस्कृति श्रमण संस्कृति अर्हतों की उपासक थी तथा वह उतनी ही प्राचीन है जितनी आत्म विद्या और आत्म विद्या क्षत्रिय परम्परा रही है। पुराणों के अनुसार क्षत्रियों के पूर्वज ऋषभदेव हैं । ब्राह्मण पुराण २१४ में पार्थिव श्रेष्ट ऋषभदेव को सब क्षत्रियों का पूर्वज कहा गया है। महाभारत के शान्ति पर्व में भी लिखा है कि क्षात्र धर्म भगवान आदिनाथ से प्रवृत्त हुआ है, शेष धर्म उसके बाद प्रचलित हुए हैं। प्राचीन भारत की युद्ध पद्धति नैतिक बन्धनों से जकड़ी हुई थी । प्राचीन युद्धों में उच्च चरित्र का प्रदर्शन होता था । इतनी उच्च श्रेणी का क्षत्रिय चरित्र का उदाहरण अन्यत्र कहीं नहीं दिखता इसका एक मात्र कारण श्रमण संस्कृति का प्रभाव है। आर्यों ने यह भारत की प्राचीन श्रमण परम्परा से ही सीखा है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पिता नाभि राजा चौदहकुलकरों में अन्तिम कुलकर थे उनका समय संक्रान्ति काल था । उस समय भोग भूमि थी। नाभि राजा के नाम पर ही इस क्षेत्र का नाम नाभि खंड या अजनाभ वर्ष पड़ा था। भागवत पुराण में स्पष्ट लिखा है कि अजनाभ वर्ष ही आगे चलकर नाभि के पौत्र एवं ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती भरत के नाम से भारतवर्ष हुआ । नाभि और ऋषभदेव का प्रभाव समस्त मध्य पूर्व एशिया, यूनान,
SR No.002460
Book TitleJainatva Jagaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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