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________________ २५२ जैनत्व जागरण..... साथ पणियों का संघर्ष दीर्घस्थायी होने पर भी वैदिक गण इन लोगों को सिर्फ एक बार पराजित करने में सफल हुए थे एवं बहु प्रतीक्षित इस विजय को चिरस्मरणीय करने के उद्देश्य से उन्होंने ऋग्वेद में प्रायः एक ही तरह के शब्दों से विजय गाथा की रचना की है । इस युद्ध के आघात से पणि लोग बहुत ही थोड़े समय में फिर से उबर गये और पुनः अपने वैभव को प्राप्त किये। इस अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि ऋग्वेद की रचना से पहले ही इस अंचल में एक उन्नतशील संस्कृति और यज्ञ विरोधी दर्शन स्थापित था । जिसे हम श्रमण या निर्ग्रन्थ धर्म भी कह सकते हैं । उनकी समृद्धि को हासिल करने के लिये इन पर आक्रमण किया गया । और धोखे से हराकर लूटमार की गयी लेकिन फिर से ये लोग अपने पूर्व अवस्था को प्राप्त किये और प्रत्येक क्षेत्र में चाहे वह व्यापार हो, धातुशिल्प हो, पाषाण शिल्प हो या तातशिल्प सबमें अग्रणी रहे । यही उनकी समृद्धि का कारण बना । जिसके लिये परवर्ती काल में इन पर आक्रमण हुए और बार-बार इस जीवन्त संस्कृति को नष्ट करने की चेष्टा की गयी । जिसके प्रमाण आज भी दिखाई देते हैं । फलस्वरूप श्रावकों को यहाँ से पलायन करना पड़ा। जो अत्यधिक धनवान थे वे सबसे पहले चले गये उसके बाद मध्यवर्गीय लोग चले गये परन्तु जो शिल्पकार यहाँ रह गये उन लोगों ने अपने प्राण त्याग दिये या धर्म परिवर्तन कर लिया । उनके बनाये सुन्दर शिल्प कला कृतियों को नष्ट कर दिया या परिवर्तित कर दिया गया । ये कार्य मुसलमानों और अंग्रेजों ने नहीं किया बल्कि शैव मतावलम्बियों ने किया । दुर्भाग्यवश आज भी यह हो रहा है लेकिन अन्य रूप में । पांचेत डैम के निर्माण में तेलकूपी के जैन मन्दिर जल के गर्भ में समा गये लेकिन इससे कोई भी सबक नहीं लिया गया और पुनः चांदिल डैम के निर्माण के समय भी ऐसा ही हुआ । No lesson was learned from Telkupi and the same exercise was repeated a hundred kilomentres to the south less than fifty years later in the southern tracts of
SR No.002460
Book TitleJainatva Jagaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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