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________________ जैनत्व जागरण..... २५१ सप्तसिन्धु के वैदिक गणों का रुख इनके प्रति शत्रुतापूर्ण था । फिर भी वे लोग अपनी शारीरिक शक्ति के द्वारा उनकी कोई क्षति करने में भी समर्थ नहीं थे और निरूपाय होकर ईश्वर से प्रार्थना करते- जो लोग धनधान करते हैं उनका संहार करो, जो हमारे विरुद्ध आचरण कर हमारे ऊपर अस्त्रों का प्रहार करते हैं वे हमारे मालिक (प्रभु) न हों, ऋषियों के प्रति द्वेष रखने वालों को अपना कोप-भाजन बनाओ । जो व्रत रहित हैं और जो सोमाभिषेक नहीं करते उनका बध करो, यज्ञ-परायण को यज्ञ हीनो का धन प्राप्त हो, जो होम नहीं करते वे बलहीन हों, जो वेद से भिन्न व्रत पालन करें वे तुम्हारे द्वारा दण्डित हों, देवहीनों और विरोधियों का वध करों. पणियों का नाश करो इत्यादि विविध तरह की व्याकुलता पूर्वक की गयी प्रार्थना ऋग्वेद में मिलती है जिससे यह सन्देह होता है कि ऋग्वेद का यह प्राकृतिक रूप है या विकृतिपूर्ण रूप क्योंकि जो अपने श्रम से अपने उद्देश्य का सिद्धि कर सकता है उसी उद्देश्य को वैकल्पित रूप से देवताओं के द्वारा सिद्ध कराने की व्यवस्था की तरफ लोगों को प्रवृत्त करना परोक्षरूप से श्रम विमुख करना है . ऋग्वेद में इन समृद्ध मनुष्यों को साधारणतया पणि नाम से अलंकृत किया गया है। इन समृद्धशाली पणियों से ही सम्भवतः हमारी प्राचीन मुद्रा का नाम पण एवं वाणिज्य संसार का नाम पण्य हुआ । इसी से समझा जा सकता है कि भारतवर्ष के प्राचीन युग में मुद्रा धातु के निर्माण के लिए आवश्यक ताम्र धातु सम्पदा अधिकार में थी एवं भारतवर्ष की तत्कालीन अर्थ व्यवस्था में इनकी मुद्राओं का अत्यधिक महत्व था। चूंकि साधारणतः धातु सम्पन्न लोग हमेशा ही कृषि पर आश्रित लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक समृद्ध एवं सम्पन्न होते हैं। इसीलिए पण या मुद्रा समृद्ध पणिगण सप्तसिन्धु के (कृष-निर्भर) लोगों की तुलना में समृद्ध होते थे और यही ईर्ष्या व द्वेष का कारण था । ऋग्वेद में प्रायः प्रत्येक सप्तसिद्ध ऋषि-मुनियों की मुक्तियों में पणियों का उल्लेख अवश्य है एवं इनको वश में करने के उद्देश्य से ऋग्वेद में समग्र एक सूक्ति की रचना की गई है । सप्तसिन्धु के वैदिक आर्यों के
SR No.002460
Book TitleJainatva Jagaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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