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________________ जैनत्व जागरण..... ७. संस्कृति का स्रोत निरन्तर विषय भोगों की अभिलाषा करने के कारण अपने वास्तविक प्रेय से चिरकाल तक बेशुद्ध हुए लोगों को जिन्होंने करुणावश निर्भय आत्मलोक का उपदेश दिया और जो स्वयं निरन्तर अनुभव होने वाले आत्म स्वरुप की प्राप्ति के कारण सब प्रकार की तृष्णाओं से मुक्त थे, उन भगवान ऋषभदेव को नमस्कार है। जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव (आदिनाथ) विश्व की सभी संस्कृतियों द्वारा मान्य तथा किसी न किसी रूप में उपास्य है। जैन दर्शन में २४ तीर्थंकर हैं जिनके पंच कल्याणकों को तीर्थ स्थान माना जाता है विशेषकर जन्मस्थल और निर्वाण स्थल पर बड़े बड़े विशाल स्तूपों चैत्यों आदि का निर्माण किया जाता है। स्वामी दयानन्द सरस्वती भी मानते हैं कि मंदिरों एवं मूर्तियों का निर्माण सबसे पहले जैनियों ने प्रारम्भ किया था । भारतवर्ष में आज जितने भी बड़े बड़े जैन तथा जैनेतर तीर्थ हैं जैसे बद्रीनाथ, केदारनाथ, अमरनाथ, तिरूपति, उड़ीसा के जगन्नाथ सब अर्हत संस्कृति के प्रतीक हैं । ऐतिहासिक अवलोकन से यह स्पष्ट होता है कि ये तीर्थंकर सभी धर्मावलम्बियों द्वारा किसी न किसी रूप से पूजे जाते हैं। इसका सबसे महत्वपूर्णप्रमाण बौद्धों द्वारा अर्हत् तीर्थंकरों को बुद्ध के रूप में पूजा जाता है । सारनाथ सांची आदि के स्तूप जैन होते हुए भी बौद्ध परम्परा में भी मान्य है । इसी श्रेणी में कैलाश पर्वत का विवरण आता है । जो प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का निर्वाण स्थल है । जहाँ की यात्रा हर वर्ष अनेकों यात्री करते हैं । यह क्षेत्र शिव के नाम से भी जुड़ा हुआ है। तिब्बती भाषा में शिव का अर्थ मुक्त होता है। इसलिए भगवान् ऋषभदेव को पुराणों में शिव के नाम से भी अभिहित किया है । कैलाश पर्वते रम्ये वृषभों यं जिनेश्वर चकार स्वारतारं यः सर्वज्ञ सर्वगः शिवः । (स्कन्धपुराण कौमारखं अ० ३७)
SR No.002460
Book TitleJainatva Jagaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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