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________________ ११८ जैनत्व जागरण..... AAAAA होता और प्रव्रजित होने में सोचता नहीं है, जो राग, द्वेष और भय आदि से रहित है, जो त्रस और स्थावर प्राणियों को संक्षेप या विस्तार से जानकर त्रिकरण त्रियोग से हिंसा नहीं करता, जो क्रोध से, लोभ से, हास्य से और भय से झूठ नहीं बोलता, जो काम भोगों से अलिप्त है वहीं वास्तव में ब्राह्मण है ।" आगे लिखा है कि न वि मुंडिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो । न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण न तावसो ॥३१॥ । केवल सिर मुंडाने से कोई श्रमण नहीं होता, न ॐ कार बोलने से ब्राह्मण होता है, अरण्य में बसने मात्र से कोई मुनि नहीं हो जाता और . न वल्कलादि पहनने से कोई तापस हो सकता है । समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो । नाणेण उ मुणी होइ, तवेण होइ तावसो ॥३२ समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तप से तपस्वी होता है। इस प्राच्य भू-भाग में मगध, विदेह, अंग, बंग और कलिंग आदि प्रमुख जनपद थे । निस्सन्देह रुप से यहाँ के निवासी वैदिक ब्राह्मणों से प्रथम वातरशना मुनि, अर्हत, व्रात्य, निर्ग्रन्थ और श्रमण तीर्थंकरों की परम्परा के उपासक थे । जहाँ तक हमारा इतिहास जाता है उससे पूर्व काल से इस प्राच्य भूमि में नाग, यक्ष, वज्जि, लिच्छवी, ज्ञात, मल्ल, मोर्य आदि अनार्य जातियों की सभ्यता सम्पोषित, और पल्लवित हुई थी। यहाँ की संस्कृति ज्ञान-विज्ञान, शिल्प, कला और कौशल आदि की दृष्टि से बहुत ही उच्चकोटि की थी। इस सांस्कृतिक परम्परा के प्रवर्तक और संवाहक तीर्थंकर रहे थे। __इस अवसर्पिणी काल में चौबीस तीर्थंकर हुए हैं इनमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का निर्वाण अष्टापद पर्वत पर और बाईंसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ जी का निर्वाण गुजरात भूमि के गिरनार पर्वत पर हुआ था । जबकि अन्य . बाईस तीर्थंकरों का निर्वाण प्राच्य भूमि के बिहार प्रान्त में हुआ था। कल्पसूत्र
SR No.002460
Book TitleJainatva Jagaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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