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________________ जैनत्व जागरण..... १९९ सर + आगी से आए हैं । सर शब्द का अर्थ होता है निःसृत होना एवं आगि अथवा आगी का अर्थ होता है अग्नि । अतएव सराग व सरागी शब्दों का अर्थ हैं अग्नि से निसृत अथवा जो अग्नि से कुछ निसृत कराते हैं। ___ नव पाषाण युग के अन्तिम समय तक मनुष्य यही जानता था कि अग्नि सब कुछ ध्वंस कर देती है। पर अचानक ही आश्चर्य के साथ उन्होंने देखा कि ऋषभ पुत्रगणों ने अग्नि से ध्वंस हुए मलवे से कुछ महामूल्यवान पदार्थ निसृत किये । इसीलिए, शायद इन्हें सराग कहा गया हो । सरागी अथवा अग्निपुत्र के रूप में यह जाति श्रेष्ठ सम्मान से विभूषित हुई । (पूर्वांचल में सराक संस्कृति और जैन धर्म - तित्थयर) गोत्र परिचय : . . अधिकतर भाषाविद् तिब्बती शब्द बान से बंग की उत्पत्ति मानते हैं। तिब्बत से नाग जाति का यहाँ आने का उल्लेख मिलता है । गंगा की एक धारा का नाम भागीरथ होना इसकी पुष्टि करता है । बंगाल में तीर्थंकर नाम भी काफी प्रचलित है। जैन साहित्य के अनुसार ऋषभदेव ने अपनी दीक्षा के पूर्व अपने सौ पुत्रों को विभिन्न क्षेत्रों का कार्य संचालन का भार अंग, बंग, कलिंग के क्षेत्र आज भी उन्हीं के पुत्रों के नाम की स्मृति को जीवन्त रखे हुए है। इस बात के प्रमाण स्वरूप बंगाल में हमें एक ऐसी प्राचीन जाति मिलती है जो आज सराक नाम से जानी जाती है। जिसके इतिहास के विषय में बहुत कम काम हुआ है। यह मान्यता है कि किसी भी जाति के कुल और गोत्र के नाम उनके पूर्वजों के नाम पर परम्परा से चले आते हैं । इन सराक जाति के लोगों के गोत्र तीर्थंकरों के नाम पर है धर्मदेव, अनन्तदेव, आदिदेव तथा ऋषभदेव आदि । जिनमें ऋषभदेव प्रमुख है । अतः यह माना जा सकता है कि सराकों के पूर्वज ऋषभदेव या उनके निकट के कोई व्यक्ति थे । जिनसे उनका रक्त संबंध था । किसी भी अनुष्ठान में ये सराक जाति अपने आदि पुरुष का नाम गोत्र पिता के रूप में स्मरण करते हैं । यह एक जीवन्त प्रमाण है जो लिखित इतिहास से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है।
SR No.002460
Book TitleJainatva Jagaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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