________________
जैनत्व जागरण....
१९८
को व्यक्त किया है। "जगन्नाथ जैन शब्द है और ऋषभनाथ के साथ इसकी समानता है । ऋषभनाथ का अर्थ है सूर्यनाथ या जगत का जीवन रूपी पुष्प । ऋषभ यानि सूर्य होता है । यह प्राचीन बेबीलोन का आविष्कार है। प्रो. सई ने अपने Hibbert Lectures (1878) में स्पष्ट कहा है कि इसी सूर्य को वासन्त विषुवत में देखने से लोगों ने समझा कि हल जोतने का समय हो गया है | वे वृषभ अर्थात् बैलों से हल जोतते थे इसलिये कहा गया कि वृषभ का समय हो गया । इस दृष्टि से लोक भाषा में सूर्य का नाम ऋषभ या वृषभ हो गया । उससे पूर्व सूर्य जगत का जीवन है यह धारणा लोगों में बद्धमूल हो गयी थी ।" अतः ऋषभ की और सूर्य की उपासना का एक्य स्थापित हो गया । इस प्रकार नीलकण्ठ साहू ने उड़ीसा से बेबीलोन तक व्याप्त ॠषभ - संस्कृति को व्यक्त किया है ।
I
I
इसके आगे वे लिखते है कि अति प्राचीन वैदिक मंत्र में भी कहा है- "सूर्य आत्मा जगत् स्तस्थुषश्रम । (ऋग्वेद १-११५-१) सूर्य जगत् का आत्मा या जीवन है। बेबीलोन के निकट जो तत्कालीन प्राचीन मिट्टानी राज्य था वहाँ से यह बात पीछे आयी थी । उस समय मिट्टानी राष्ट्र के राजा (ई. पू. चौदहवीं शताब्दी) दशरथ थे । उनकी बहन और पुत्री दोनों का विवाह मिस्त्र सम्राट के साथ हुआ था । उन्हीं के प्रभाव से प्रभावित होकर चतुर्थ आमान हेटय् या आकनेटन् ने आटेन (आत्मान्) नाम से इस सूर्य धर्म का प्रचार किया था और यह 'सूर्य या जगत् का आत्मा ही परम पुरुष या पुरूषोत्तम है' ऐसा प्रचार कर एक प्रकार से धर्म में पागल होकर समस्त साम्राज्य को भी शर्त पर लगाने का इतिहास में प्रमाण है । बहुत सम्भव है कि कलिंग में द्रविड़ों के भीतर से ये जगन्नाथ प्रकट हुए हों । मिस्त्रीय पुरूषोत्तम तथा पुरी के पुरूषोत्तम ये दोनों इसी जैन धर्म के परिणाम है ।" ऋग्वेद में अग्नि की स्तुति के लिये जिन-जिन विशेषणों का प्रयोग किया गया है उनके अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि ये अग्निदेव भौतिक अग्नि न होकर इन्हें ऋषभदेव के आह्वान के लिये रचित किया गया है। इसी सन्दर्भ में यदि देखे तों सराक शब्द का सम्बन्ध अग्नि से भी सम्बन्धित है सराक, सराग, सराकी, सरापी तथा सरोगी आदि शब्द सर + आग या