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जैनत्व जागरण.....
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थे। तब छोटानागपुर, सिंहभूम, धलभूम, राँची और मानभूम के ताम्रखदानों के पास ही मुख्यतः सराकों का उपनिवेश हुआ करता था एवं ऐसे खदानों के निकट आज भी उनका उपनिवेश देखा जाता है । यद्यपि अभी सराकों की संख्या काफी नगण्य हैं। कई शताब्दियों से ताम्र खदानों में निष्कासन नहीं होता । यही कारण है कि अभी सराकों को अपना जीवन निर्वाह कृषि, व्यापार तथा सूद-ब्याज के कारोबार द्वारा करना पड़ता है। ऐसा भी माना जाता है कि इस क्षेत्र में गन्ने की खेती की शुरुआत सर्वप्रथम इन्होंने ही की थी। लौह शिल्प :
श्री हरिप्रसाद तिवारी व नृसिंह प्रसाद तिवारी लिखते हैं- "केवल ताम्रयुग के प्रवर्तक ही नहीं बल्कि पूर्वांचल में लौह युग के सृष्टा भी यह सराक जाति ही थी। राढ़ अंचल में वैज्ञानिक तरीके से इन्होंने प्रचुर परिमाण में लौह निष्कासन और विनियोग भी किया । जाम ग्राम को केन्द्र बनाकर अजय नदी के दोनों कुलवर्ती क्षेत्रों में रूपनारायणपुर से पाण्डेश्वर तक लम्बे तीस मील के अंचल में पर्वताकार उत्सर्जित लौह चूर्ण (लाख-लाख टन) तथा भग्नावस्था में पड़े हुए लौह-अयस्क गलाने की भट्ठियाँ आज भी इनके लौह शिल्प की दक्षता का प्रमाण देती हैं ।"
सराक जाति इस देश के लौह शिल्प की कर्ता-धर्ता थी, इस बात का प्रमाण भगवान महावीर के परवर्ती जैन साहित्य में है जहाँ तीन लौहाचार्यों के साक्षात्कार मिलते हैं ।
"प्रथम लौहाचार्य भगवान महावीर के शिष्य सुधर्मा थे, जो कोल्लाक के निकट के निवासी थे, शायद वे लौह-शिल्पियों के पंडित थे, या फिर लौह-शिल्पियों के आचार्य ।" ।
दूसरे लौहाचार्य कल्पसूत्रकार भद्रबाहु थे । उनका गौत्र बहुत पुराना
★ जैन मुनि निग्रंथ के नाम से प्रसिद्ध थे । जिस का अर्थ "गांठ बिना" अर्थात् राग-द्वेष की गांठ के बिना का होता है (Uttradhyayna Adhyayna XII 16, XVI 2. Acaranga, PtII, Adhyayna III, 2 and Kalpa-Sutra Sut 130 etc) (अनुवादक)