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________________ जैनत्व जागरण..... २०१ Sarawak, Serak or Sarak is clearly a Corruption of Srawaka the Sanskrit word for a hearer. Which was used by the Jains for lay brether.” (From Bengal District gezetter Vol XX Singbhoom Calcutta 1910 pg. 25). ऋषभदेव के उपदेशों को मन, वचन, काया के द्वारा अनुपालन करते हैं वो ही श्रावक संघ के सदस्य या श्रावक कहलाते थे । दूसरे शब्द में कहे तो सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चारित्र का पालन करने वाले ही श्रावक कहलाते हैं और यहीं श्रावक पूर्वांचल में सराक के रूप में अपनी पहचान बनाए हुए है । एक जैन सम्मेलन में किसी वक्ता ने इनके विषय में कहा था कि "यदि वर्तमान जैन संघ जिनेश्वर की नूतन प्रतिमा है तो सराक उसकी प्राचीन प्रतिमा का अवशेष है । यदि जैन रूप पर्वत की खुदाई करेंगे तो सराक उस खुदाई की उपलब्धि होंगे।" आदि संस्कृति के प्रणेता भगवान ऋषभदेव थे। जिनकी मान्यता वैदिक ग्रन्थों में भी है तथा वे सारे मानव समाज के आदि पुरुष माने गये हैं । उनको सराक जाति अपने गोत्र पिता के रूप में वहन करती आ रही है। अतः यदि हमें अपने प्राचीन संस्कृति के इतिहास को जानना है तो सराक जाति के इतिहास का परिचय पाना होगा जो हमें आदिनाथ ऋषभदेव तक पहुंचाता है । सराकों से परिचय : सन् १८६४-६५ में ले. कर्नल डाल्टन ने मानभूम जिला परिभ्रमण की टूर डायरी लिखते समय एक ऐसी जाति का उल्लेख किया जिसने उन्हें विशेष रूप से प्रभावित किया था । उनके सम्बन्ध में वे लिखते हैं१८६३ में जब कि मैं पुरुलिया से १२ मील दूर झापरा नामक स्थान पर गया तो वहाँ के कुछ अधिवासी मुझसे मिलने आए । मुझे उनकी मुखाकृति बुद्धिदीप्त और बड़ी ही शालीन लगी । उन्होंने स्वयं को सराक बताते हुए गर्व से कहा कि किसी घृणित कार्य के लिए उनमें से कोई भी कोर्ट में अभियुक्त बनकर नहीं गया है । वास्तव में किसी को आघात पहुँचाने या किसी भी हत्या के प्रति उनके मन में अत्यन्त घृणा थी । वे पार्श्वनाथ के उपासक थे और सूर्योदय के पूर्व कुछ नहीं खाते थे । आगे वे फिर लिखते
SR No.002460
Book TitleJainatva Jagaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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