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जैनत्व जागरण...
श्री पार्श्वनाथ प्रभुजी के उपासक थे । संभवतः वैसे ही आनन्द श्रावक आदि के पिता भी श्री पार्श्वनाथ प्रभु के उपासक थे। सराकों की परम्परा आनन्द श्रावक, कामदेव श्रावक, सुरादेव आदि श्रावकों की है। सराकों को मूलतः पार्श्वनाथ संतानीय श्रावक कहा जाता है । वर्तमान समय में सराकोंळा वसवास
पुरूलिया (W.B.) (मानभूम) के पश्चिम प्रांत में अत्यधिक संख्या में सराकों का वास है । रांची (बिहार), वर्धमान (W.B.) उडीसा, सांतालपरगणा, धनबाद, बाँकुड़ा आदि प्रांत मे सराकजातिके लोग रहते है, इससे पहले "इनकी वासभूमि कंसावती नदीके तीरवर्ती मानबजार अंचल में थी । जैसे बोदाम, बुधपुर पाकबिड़रा, रांची आदि प्रांतोमें सराकों की वस्ती थी. मगर कब से वे वहा वास करते थे, कहना मुश्किल है। कहीं से उसका उल्लेख प्राप्त नहीं है। फिर भी दसवी शताब्दी से लेकर सोलहवी शताब्दी तक के काल में वे लोग (सराकजाति) वहां ही वास करते थे, ऐसा उल्लेख मिलता है।"
कांसाइ नदी की तटभूमि के पुरातात्विक जैन निदर्शनों से अनुमान लगाया गया है, कि वहाँ की पत्थरकी मूर्ति आदि निदर्शन दसवीं शताब्दी से लेकर तेरहवीं शताब्दी के समयकाल में बनाई गई थी ।
“This is borne out by fact that from all along the banks of the kansai (Kansavati) river, Numerous stone images of jain Toithankar have been found. Which are datable to the 10th, 11 th or 12th centuries on stylistic consideration. Besides these, their are remmants in the above places of Jain temples built between the 10th and 13th centuries in variation of the North Indian and Orissan and Nagaresikara style. These can be seen at Boram, Budhpur, Charrach, Palma Pakbirrah.....” (West Bengal District gazetters Op. Cit. P. 139)
कांसाई नदीके तटमें जो भी पुरातात्त्विक निदर्शन मिला है, इसके