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जैनत्व जागरण.....
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अस्तित्व में आया । आकोटा की धातु मूर्ति के पूर्व वस्त्र युक्त श्वेताम्बर मूर्तियों के कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, यद्यपि छठी शताब्दी से श्वेताम्बर दिगम्बर मूर्तियाँ अलग-अलग होने लगी, किन्तु उस समय भी प्राचीन तीर्थ क्षेत्र थे उनमें जो प्राचीन मूर्तिया थी, वे यदि पद्मासन की मुद्रा में होती थी तो उनमें लिंग बनाने की परम्परा नहीं थी और यदि वे खड़गासन की मुद्रा में होती थी तो स्पष्ट रूप से उनमें लिंग बनाया जाता था । हाँ, यह अवश्य सत्य है कि परवर्ती काल के श्वेताम्बर आचार्य भी उन नग्न मूर्तियों का दर्शन, वंदन आदि करते थे।
प्रो. रतनचन्द्रजी ने बीसवीं शताब्दी के स्थानकवासी आत्मारामजी और हस्तीमलजी के ग्रन्थों से भी उद्धरण प्रस्तुत किये, लेकिन ये उद्धरण भी प्रमाण रूप में स्वीकार नहीं किये जा सकते, क्योंकि आचार्य आत्मारामजी एवं आचार्य हस्तीमल जी ने जो कुछ लिखा है वह अपनी अमूर्तिपूजक साम्प्रदायिक मान्यता की पुष्टि हेतु ही लिखा हैं । पुनः बीसवीं शताब्दी के किसी आचार्य के द्वारा जो कुछ लिखा जाये वह पूर्व काल के संदर्भ में पूरी तरह प्रमाणित हो, यह आवश्यक नहीं होता हैं । जहाँ तक आचार्य हस्तीमल जी के उद्धरण का प्रश्न है, वे स्थानकवासी अमूर्तिपूजक परम्परा के आचार्य थे । उन्होंने जैन धर्म के मौलिक इतिहास में जो कुछ लिखा है वह अपनी परम्परा को पुष्ट करने की दृष्टि से ही लिखा है अतः निष्पक्ष इतिहास की दृष्टि से उनके कथन भी प्रमाण रूप से ग्राह्य नहीं हो सकते हैं । अब हम जिनप्रतिमाओं के सम्बन्ध में प्राचीन स्थिति क्या थी, इसे भी कुछ पुरातात्विक अभिलेखीय साक्ष्यों से सिद्ध करेंगे ।
कंकाली टीले से प्राप्त पुरातात्त्विक सामग्री और शिलालेखों से यह स्पष्ट हो जाता है कि ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी से ही वहाँ जिनमूर्तियाँ निर्मित हुई है और वे प्रतिमाएं आज भी उपलब्ध हैं । आचार्य हस्तीमलजी का यह कथन कि आचार्य नागार्जुन आदि यदि मूर्तिपूजा के पक्षधर होते तो उनके द्वारा प्रतिस्थापित मूर्तियां और मंदिरों के अवशेष कहीं न कहीं अवश्य उपलब्ध होते । किन्तु नागार्जुन के नाम का कोई मूर्तिलेख उपलब्ध न हो, तो इससे यह निर्णय तो नहीं निकाला जा सकता है कि जैन संघ में इसके पूर्व मूर्तिपूजा का प्रचलन नहीं था । श्वेताम्बर आगम साहित्य में विशेष रूप से कल्पसूत्र-स्थविरावली में उल्लेखित गण, शाखा
और कुलों के अनेक आचार्यों की प्रेरणा से स्थापित अभिलेख युक्त अनेक मर्तियाँ मथुरा के कंकाली टीले से ही उपलब्ध हैं। आचार्य श्री हस्तिमलजी का 'कलिंगजिन' को 'कलिंगजन' पाठ मानना भी उचित नहीं हैं । पटना के लोहानीपुर क्षेत्र से