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________________ जैनत्व जागरण....... ११० मिली जिन प्रतिमा इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण है कि जैन परम्परा में महावीर के निर्वाण के लगभग १५० वर्ष पश्चात् ही जिन प्रतिमाओं का निर्माण प्रारम्भ हो गया था। साथ ही यह भी सत्य है कि ईस्वी पूर्व तीसरी-चौथी शताब्दी से लेकर ईसा की छठी शताब्दी तक श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्यताओं के अनुरूप अलगअलग प्रतिमाओं का निर्माण नहीं होता था । श्वेताम्बर दिगम्बर परम्परा के भेद के बाद भी लगभग चार सौ साल का इतिहास यही सूचित करता है कि वे सब एक ही मंदिर में पूजा उपासना करते थे । हल्सी के अभिलेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि वहाँ श्वेतपट्ट महाश्रमण संघ, निग्रन्थ महाश्रमण संघ और यापनीय संघ तीनों ही उपस्थित थे, किन्तु उनके मंदिर और प्रतिमाएँ भिन्न भिन्न नहीं थे । राजा ने अपने दान में स्पष्ट रूप से यह उल्लेख किया है कि इस ग्राम की आय का एक भाग जिनेन्द्रदेवता के लिए, एक भाग वापनीय (confim) संघ हेतु और एक भाग जिनेन्द्रदेवता के लिए, एक भाग श्वेतपट्ट महाश्रमण संघ हेतु और एक बाग निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ के हेतु उपयोग किया जाए। यदि उनके मंदिर व मूर्ति भिन्न भिन्न होते, तो ऐसा उल्लेख सम्भव नहीं होता । भाई रतनचन्द जी का यह कथन सत्य है कि ईसा की छठी शताब्दी से पहले जितनी भी जिन प्रतिमा उपलब्ध हुई है, वे सब सर्वथा अचेल और नग्न हैं । उनका यह कथन भी सत्य है कि सवस्त्र जिन प्रतिमाओं का अंकन लगभग छठी-सातवीं शताब्दी से ही प्रारम्भ होता है । किन्तु इसके पूर्व की स्थिति क्या थी, इस संबंध में वे प्राय: चुप है यदि श्वेताम्बर परम्परा का अस्तित्व उसके पूर्व में भी था तो वे किन प्रतिमाओं की पूजा करते थे ? या तो हम यह माने कि छठी-सातवीं शताब्दी तक श्वेताम्बर परम्परा का अस्तित्व ही नहीं था, किन्तु इस मान्यता के विरोध में भी अनेक पुरातात्त्विक एवं साहित्यिक साक्ष्य जाते हैं । यह तो स्पष्ट है कि जैन संघ में भद्रबाहु और स्थूलिभद्र के काल के मान्यता और आचार भेद प्रारम्भ हो गए थे। और महावीर के संघ में क्रमशः वस्त्र - पात्र आदि का प्रचलन भी बढ़ रहा था । इस संबंध में मथुरा के कंकाली टीले के स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध हैं । कंकाली टीले के ईस्वी पूर्व प्रथम सदी से लेकर ईसा की प्रथम द्वितीय सदी तक के जो पुरातात्विक साक्ष्य है, उनमें तीन बातें बहुत स्पष्ट है :१. जहाँ तक जिन मूर्तियों का संबंध है जो खड्गासन की जिन 1 प्रतिमाएं है उनमें स्पष्ट रूप से लिंग का प्रदर्शन है, पद्मासन की जो प्रतिमाएं है उनमें न तो लिंग का अंकन है न ही वस्त्र
SR No.002460
Book TitleJainatva Jagaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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