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________________ जैनत्व जागरण..... १०७ करती हो । अतः श्वेताम्बरों का यह ४कहना कि गौतम आदि महावीर की परम्परा के गणधर सवस्त्र थे- सत्य प्रतीत नहीं होता है इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा की यह मान्यता कि सारे तीर्थंकर एवं उनके शिष्य अचेल ही थे, विश्वसनीय नहीं लगता हैं । यह बात भी सत्य हो सकती है कि चाहे भगवान महावीर ने मुनियों की निम्न श्रेणी के रूप में ऐलके और क्षुल्लकों की व्यवस्था की हो और ऐलको को एक वस्त्र तथा क्षुल्लको को दो वस्त्र रखने की अनुमति दी है तथा इसी संबंध में 'सामायिकचारित्र' और 'छेदोपस्थापनीय चारित्र' (महाव्रतारोपण) ऐसी द्विविध चारित्र की व्यवस्थाएं दी हो । यह भी सम्भव है कि भगवान महावीर ने सवस्त्र मुनियों को मुनिसंघ में बराबरी का दर्जा नहीं दिया हो । यह बात स्वयं श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित 'सामायिकचारित्र' और 'छेदोपस्थापनीय चारित्र' की अवधारणा से भी सिद्ध होती हैं । श्वेताम्बरों में जिनकल्प और स्थविरकल्प की अवधारणा तथा दिगम्बर परम्परा में क्षुल्लक, ऐलक एवं अचेल मुनि के भेद यही सिद्ध करते हैं । यहाँ हम इस चर्चा में विशेष उतरना नहीं चाहते, केवल यह स्पष्ट करने का ही प्रयत्न करेंगे के विशेषावश्यकभाष्य मूलतः श्वेताम्बर परम्परा के दृष्टिकोण का सम्पोषक है, उसके रचनाकाल तक अर्थात् छठी-सातवीं शती तक तीर्थंकरों की श्वेताम्बर मान्यता के अनुरूप मूर्तियाँ बनना प्रारम्भ हो गई थी। अकोटा की ऋषभदेव की प्रतिमा इसका प्रमाण हैं । अतः उसके कथनों को पूर्वकालीन स्थितियों के संदर्भ में प्रमाण नहीं माना जा सकता हैं । श्वेताम्बर परम्परा का यह कथन कि सभी तीर्थंकर एक देवदृष्य वस्त्र लेकर दीक्षित होते है और दिगम्बर परम्परा का यह कथन कि सभी तीर्थंकर अचेल होकर दीक्षित होते हैसाम्प्रदायिक मान्यताओं के स्थिरीकरण के बाद के कथन हैं । ये प्राचीन स्थिति परिचायक नहीं हैं । यह सत्य है कि महावीर अचेलता के ही पक्षधर थे, चाहे आचाराग के अनुसार उन्होंने एक वस्त्र लिया भी हो, किन्तु निश्चय तो यही किया था कि मैं इसका उपयोग नहीं करूंगा- जिसे श्वेताम्बर भी स्वीकार करते हैं । मात्र यही नहीं, श्वेताम्बर मान्यता यह भी स्वीकार करती है कि उन्होंने तेरह माह पश्चात् उस वस्त्र का भी त्याग कर दिया और फिर अचेल ही रहे । महावीर की अचेलता के कारण ही प्राचीन तीर्थंकर मूर्तिया अचेल ही बनी । पुनः चूंकि उस काल में बुद्ध की मूर्ति सचेल ही बनती थी, अतः परम्परा का भेद दिखाने के लिए भी तीर्थंकर प्रतिमाएं अचेल ही बनती थी। प्रो. रतनचंद्रजी ने दूसरा प्रमाण श्वेताम्बर मुनि कल्याणविजयजी के 'पट्टावली
SR No.002460
Book TitleJainatva Jagaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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