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जैनत्व जागरण.......
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परवर्त्ती काल अर्थात् सातवीं शताब्दी में ब्राह्मणवाद के धारक एवं वाहक सम्प्रदायों से जूझना पड़ा । ब्राह्मण सम्प्रदाय व कट्टर हिन्दू लोगों ने सराक संस्कृति को इस अंचल से मिटाने के लिए उन पर उत्पीड़न करना शुरु किया । जैन मन्दिरों से सराकों द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियों को उठाकर हिन्दू देवदेवियों की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित कर दीं । इस कार्य में उन्होंने हिन्दू राजाओं का समर्थन प्राप्त किया । परिणामतः सराकों के एक बड़े अंश ने उड़ीसा के उदयगिरि-खण्डगिरि अंचलों में भागकर वहाँ बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया । मानभूम में भी अनेकों ने धर्म बदल लिया । यहाँ तक कि ब्राह्मण धर्म के भयंकर कोप से आक्रान्त होकर स्वयं को बचाने के लिए अपने को विभिन्न प्रकार की हीन आजीविका में नियुक्त करना पड़ा । सराकों की इस अवनति का वर्णन करते हुए सर हारवर्ट रिसले ने भारत का जनगण नामक अपनी पुस्तक में लिखा हैं
"They have split up into endogamous groups based partly on locality and partly on the fact that some of them have taken to the degaraded occupation of weaving and they now form a Hindu caste of the ordinary type."
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सराकगण शिल्पी हैं । जीविका के लिये वे वस्त्र बुनने में बाध्य हुए थे, किन्तु बहुत कम समय में ही वे तांत वस्त्र के दक्ष शिल्पी बन गए । उस समय सराकगण मोटा कपड़ा या सूती वस्त्र नहीं बुनते थे, वे लोग
★ यद्यपि चीनी यात्री ने निर्ग्रथो का अन्य स्थानों पर विशेषतया वर्णन नहीं किया, तथापि जहां कहीं वह यह उल्लेख करता है कि बौद्धधर्म के साथ साथ अन्य धर्म भी प्रचलित थे, वहां समझना चाहिये कि जैन संप्रदाय भी उनमें से एक था । उसकी चुप्पी का यह अर्थ नहीं लगाना चाहिये कि पूर्वी भारत तथा बंगाल के दूसरे भागों में जैन न थे । जैसे, कि राजगृह के वर्णन में ह्यूसांग ने जैनों का कोई वर्णन नहीं किया परन्तु उस ने विपुल पर्वत की चोटी पर एक स्तूप के समीप कई निर्ग्रथों को देखा था । राजगृह जैनों का बहुत बड़ा तीर्थ स्थान है तथा बहुत परिमाण में जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां इस स्थान पर आसपास बिखरी हुई मिलती है वैभार गिरि पर अनेक जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां सुरक्षित हैं। तथा जैसे राजगृह बौद्ध साहित्य में प्रसिद्ध है वैसे ही जैन साहित्य में भी प्रसिद्ध है । (अनुवादक)