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________________ ४२ जैनत्व जागरण..... दुःखी होकर रावण के पास आते हैं और बतलाते है कि राजपुर में मरुत नाम का राजा यज्ञ कर बेचारे निरीह पशुओं की बलि दे रहा है। मैंने उसे समझाया कि असली यज्ञ आत्मा की पवित्रता का है । लेकिन राजा ने नहीं सुना और मुझे मारना चाहा अतः मैं आपके पास आया हूँ। तब शक्तिशाली रावण ने जाकर यज्ञ बन्द कराया । इस उपाख्यान से यह स्पष्ट है कि ब्राह्मण ग्रन्थों में जो कहा गया है कि राक्षस व असुर यज्ञ विध्वंस कर देते थे वास्तव में इसका अर्थ शक्तिशाली अर्हत् जैन धर्मी राजाओं से है जो हिंसक यज्ञों का विरोध करते थे, उनको ही असुर और राक्षस तथा दैत्यराज के नाम से सम्बोधित किया जाता था । देव और असूरो के मध्य हुआ संघर्ष भी एक प्रकार से दो संस्कृतियों या जातियों के मध्य था । विद्वानों का अनुमान है कि असुर राजा प्राय: अहिंसक जैन संस्कृति से सम्बन्ध थे । यह बात और है कि विद्वेष के कारण असुर शब्द को हिंसा को पर्यायवाची बना दिया है। विष्णु पुराण के अनुसार असुर लोग अर्हत् धर्म के अनुयायी थे । इनका अहिंसा में पूर्ण विश्वास था यज्ञ और पशुबलि में इनकी पूर्ण अनास्था थी। श्राद्ध और कर्म काण्ड के ये विरोधी थे । (विष्णु पुराण ५७३/ १७, १८-१८, २६, २८, २९, ३०,४९ १३/१७०-४१३) ' महाभारत के शान्तिपर्व में असुर राजा बलि अपने मुख से आत्म साधना का जो वर्णन करते हैं वह भी जैन धर्म के अनुकूल हैं । (दामोदर शास्त्री भारतीय संस्कृति और जैन साधना ।) वेदों में वर्णित आश्रम व्यवस्था ऋषभदेव द्वारा कर्मों के आधार पर स्थापित की गयी थी जो बाद में ब्रह्म आर्यो द्वारा जन्मगत आधार पर की गयी । ब्राह्मणों ने वेदों की ईश्वरोक्त बताया है जबकि ऋग्वेदकी संहिता अष्टक तीन, अध्याय दो, वर्ग १२, १३, १४ से यह सिद्ध होता है कि विश्वामित्र ऋषि ने पंजाब में जहाँ व्यास और सिन्धु नदी मिलती है वहाँ पर अगाधपानी देखकर उन्होंने नदी पार करने के लिये इन तीन ऋचाओं से नदियों की स्तुति की । ऋग्वेद के दसों मंडलों के सृष्टा दस ऋषि हैं । शंकराचार्य के समय से आज तक लगभग १२०० वर्ष पूर्व वेदों में काफी फेर बदल किया गया । कितने ही पुराने श्लोकों को निकालकर नए श्लोक स्थापित किए
SR No.002460
Book TitleJainatva Jagaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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