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________________ जैनत्व जागरण..... ४१ की गयी थी । ये वेद नवें तीर्थंकर सुविधिनाथ के उपदेश से श्रावकों के लिये की गयी थी । ये वेद नवें तीर्थंकर सुविधिनाथ के समय तक चले उसके बाद जब विछिन्न होने लगे तो उस समय के भाष्यकारों नेक श्रुतियाँ रची जिनमें हिंसक बलि, यज्ञ तथा शक्तिशाली देवताओं इन्द्र वरुण आदि को प्रसन्न करने की स्तुतियाँ की गयी । बाद में वेद व्यास जी ने इनको एकत्रित कर उनके चार भाग कर चार नाम से चार वेद बनाये । वेद में स्थान स्थान पर वैदिक देवताओं के प्रति की गयी प्रार्थनाओं से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि इस संस्कृति के लोग भौतिक कामनाओं की पूति के लिए देव शक्तियों पर आश्रित रहने वाले थे। इनके द्वारा यज्ञ में बलि दी जाती थी । इनका जीवन संघर्षमय व असुरक्षा की भावना से ग्रस्त था । व्यास जी ने ब्रह्म सूत्र की रचना की जिसके तीसरे अध्याय के दूसरे भाग के ३३वें सूत्र में जैनों की सप्तभंगी का खंडन किया है । जिस समय में जो मत प्रबल होता है उसी का खंडन किया जाता है। अतः यह स्पष्ट होता है कि वेद व्यासजी के समय जैन धर्म प्रभावशाली था । उपनिषद और पुराणों के अध्ययन से यह मालूम पड़ता है कि इसमें वेदों के विपरित लिखा है। उपनिषद जैन मत के समीप कहे जा सकते हैं उसमें जैन दर्शन की अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। क्योंकि उपनिषद् के प्रवक्ता ब्राह्मण नहीं थे. श्रमण धर्म के तीर्थंकरो की तरह क्षत्रिय थे। एक बात और ध्यान देने योग्य है कि जिस प्रकार ब्राह्मणों के चार वेद हैं उसी प्रकार मग जाति के भी चार वेद होते थे । विद, विश्वरद, विराद और अंगीरस । ये वेद खरोष्टि लिपि में थे। मगों के इन वेदों का वर्णन पारसी धर्म ग्रंथ अवेस्त के प्राचीनं अंश में भी मिलता है । जरथुस्त्र तथा उनके वंशज मग कहलाते थे। मगों का शासन मिस्त्र बेबीलोनिया, तातार, साइबेरिया, रूस आदि अनेक देशों में फैला हुआ था । दक्षिण भारत में आज भी जिन वेदों का अध्ययन किया जाता है वे उत्तर भारत के वेदों से भिन्न हैं । आवश्यक शास्त्र में वर्णन है कि जीव हिंसा युक्त यज्ञ ऋषि याज्ञवलक्य सुलसा तथा अरु आदि द्वारा शुरू किये गये थे । इस सन्दर्भ में एक उपाख्यान भी आता है जो इस प्रकार है । 'रावण जब दिग्विजय करने निकलता है तो रास्ते में नारद
SR No.002460
Book TitleJainatva Jagaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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