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जैनत्व जागरण.....
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प्रतीक को रथाकार एक लघु मंच में स्थापित कर सरोवर या नदी पर्यन्त संक्रान्ति यात्रा निकालते है । उस प्रतीक को बंगाली भाषामें "टुसु" कहते है। इस शब्दके बारेमें आज तक तदन्त नहीं किया गया है कि टुसु शब्दका क्या अर्थ है । संभवतः टुसु का अर्थ "स्तुप' होना चाहिए । इस राज़ का पता आजतक नहीं चला है ।
माह (माघ): सराकगण इस महीने की शुक्ल पंचमी के दिन सरस्वती पूजा रचाते है। वार्षिक कर्तव्य श्रुतपूजाके रूप से अनुष्ठान रचाते है। आबालवृद्ध घरके सारे सभ्य अपने घरमें रही किताबे-वहि को एक मंच में रखकर स्वयं पूजा करते है।
फाल्गुन : (फागण) सराकगण इस महीने की पूनमके दिन सम्मेतशिखर की यात्रा करते है। न्यूनाधिक आज भी यह प्रथा जारी है। सराकोंमें होली खेलने की प्रथा आज भी नही है ।
चैत्र : चैत्र महीनेमें कुलदेवी-देवता-पितरों की पूजा करते है । आयंबिल तपादि करते है ।
एक समय छोटे बच्चेका "अन्न प्राशन्न" एवं मस्तक मुंडन, सम्मेतशिखरजी में करवाने की प्रथा थी । आज कहीं भी करवाते है ।
षष्ठी पूजा : माता षष्ठी का व्रतकर संतानके ऊपर वात्सल्य की धारा बहाती है, लौकिक प्रथानुसार अमुक खाद्य वस्तु संतानो को देकर बहुमान करती है। तत्पश्चात व्रती गण स्वजनों के लिए सौजन्य की भावना से “परवी" (मिष्ठान, गुड़धाना आदि) भेजते है ।
कैसे आया सराकों मे वैष्णवत्व ? १६७४ शताब्दीमें द्वितीय रघुनाथ सिंहदेव जब पंचकोट राज्य का राजा हुआ था, तब सराको के प्रति उसकी सहानुभूति स्वभावतःप्रस्फुटित हुई । वह अपने पालक पिता समान "सराक" सज्जन को अपने घर पर बुलवाये
और धन देखकर कृत उनका परिचय दिया । राजा ने जीवनदान देने वाले श्रावक से कहा "बाबा तुम्हारी वजह से आज मैं राजा हो सका हूँ" आज