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जैनत्व जागरण.....
सन्दर्भ में मि. कूपलैण्ड ने लिखा है
___"...reference has already been made in an earlier chapter as the remnant of an archaic community (the Saraks) whose connection with the district must date back to the very earliest time.”
झारखण्ड के बुद्धिजीवी राधा गोविन्द माहात अपने "झारखण्डे धर्मान्तर अभियान 'ओ समाज संस्कार आन्दोलन' नामक एक प्रबन्ध में लिखते हैं- "जो कुछ हो, सराक जाति ने जैन धर्म ग्रहण किया और बहुत समय तक इस अंचल में धर्म की इस दीपशिखा को प्रज्ज्वलित रखा । इनके हाथों निर्मित जैन मन्दिर एवं भूप्रस्तर रचित जैन मूर्ति सहित विभिन्न देव-देवियों की मूर्तियाँ आज भी बहुत जगह विद्यमान हैं । तत्कालीन निर्मित इसका भाष्कर्य शिल्प वर्तमान युग के मनुष्य को भी आश्चर्य चकित कर डालता है कारीगरों की सूक्ष्म निपुणता देखकर ।"
___ यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो भूमि ऋषभदेव के समय से १०वीं शताब्दी तक जैन संस्कृति के प्रभाव में रही और जहाँ लाखों की संख्या में जैन धर्मानुयायी थे आज वहाँ के निवासी जैन धर्म की मूल धारा से अलगअलग पड़ गये । विदेशी आक्रमणों तथा कठिन विषय परिस्थियिों के कारण जैन धर्म का ह्यस होने लगा । कालान्तर में जैन धर्म विरोधी प्रवाह में अरण्यमय राढ़ बंग की जैन मूर्तियाँ और मन्दिरों ने क्रमशः धर्म विद्वेषी मनुष्यों की निर्मम छेनी और हथौड़ी के आघात से हिन्दू संस्कृति के रूप को प्राप्त किया।
सिर्फ पुरुलिया की धरती पर इतनी जैन मूर्तियों का मिलना यह जिज्ञासा उत्पन्न करता है कि इतनी जैन मूर्तियाँ यहाँ कहाँ से आयी ? जिसके लिये हम कह सकते हैं कि यहाँ निश्चित तौर पर भाष्यकर्य शिल्प कला और मूर्ति निर्माण की एक कर्मशाला थी जिसमें दक्ष सराक शिल्पीगण मूर्ति निर्माण करते थे। प्राचीन काल में ताम्रलिप्त बन्दरगाह से तेलकूपी होकर एक स्थल पथ दामोदर को अतिक्रम कर पाटलीपुत्र पर्यन्त चला गया था। इसी पथ से मगध साम्राज्य का व्यापार चीन, जापान, इन्डोनेशिया, बर्मा, थाईलैण्ड