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जैनत्व जागरण.....
“An other route from Tamluk district to Banaras probably passed throught Pakbirra and Bud' pur on the banks of the kausai near Manbanar,...........the fact that in those ancient times the merchants who are credited with having built these old temples.” (W. B. Dist, Gazetteers, P. 235)
तो, यह कहा जा सकता है कि नवीं से तेरहवीं सदी के बीच जो मन्दिर बने थे वे अधिकांशतः जैन व्यापारी सराक जाति के लोगों की थी। बाद में व्यापार मंदा पड़ने पर देवालयों पर से उनका अधिकार कम होने लगा । हो सकता है, जैन व्यापारियों का एक बड़ा अंश मानभूम छोड़कर चला गया था । बस कुछ एक सम्प्रदाय टिके रह गये । यही वे लोग हैं, जो आज भी यहीं रहते है । उसी समय सराकों के देवालय हिन्दुओं द्वारा अधिगृहीत कर लिए गये और देवालयों से जैनत्व साक्ष्यों को हटा दिया गया । जैन देव-देवियों की लगभग सभी मूर्तियों को हिन्दू देवी देवताओं की मूर्तियों में बदल दिया गया ।
नवीं से तेरहवीं सदी के बाद जितने भी मंदिर बनाए गए, सारे पके हुए ईंटों से बने है और अधिकांश मंदिरों की प्रतिष्ठा मुस्लिम काल के बाद हुई । अधिकतर मंदिर विष्णुपुर घराने के टेराकोटा पैनेल से सम्पृक्त है। मानभूम के सामंती शासकों का इन मंदिरों के निर्माण में काफी हाथ है। आज पुरुलिया में जो कुछ एक उल्लेखनीय टेराकोटा अलंकरण से सुसज्जित देवालय देखने को मिलते हैं, वे हैं- चेलियामार स्थित राधा-माधव मंदिर (१६९७),चाकलातोड़ गाँव में स्थित श्यामचाँद का जोड़ बंगला शैली में बना मंदिर (अठारहवीं सदी), बाघमुंडी राजमहल में स्थित राधामाधव मंदिर (१७३३), बराकजार में आटचाला शैली में निर्मित ईटों का मंदिर (आनुः अठारहवीं सदी), रघुनाथपुर में रघुनाथजी का मंदिर (अनुमानत अढारहवीं से उन्नीसवीं सदी), रघुनाथपुर के पास आचकोदा गाँव का टेराकोटा मंदिर (सत्रहवी-अठारहवीं सदी), बेड़ों गाँव का टेरकोटा मंदिर (सत्रहवीं सदी) नेतुड़िया के गड़पंचकोट का पंचरत्न मंदिर (सत्ररहवीं सदी) और गांपुर के आटचाला शैली में बना मंदिर विशेषरूप से उल्लेखनीय है ।