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जैनत्व जागरण.....
है। ये सब नाम तीर्थंकरों के हैं । ऐसा लगता है कि महाभारत के समन्वय पूर्ण वातावरण में तीर्थंकरों को विष्णु और शिव के रूप में सिद्ध कर धार्मिक एकता करने का प्रयत्न किया गया था । इससे तीर्थंकरों की प्राचीन परम्परा सिद्ध होती है।
मैगस्थनीज टोलमी इत्यादि सभी के विवरणों से यह स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है कि ब्रह्म आर्यो के आने से पूर्व भारत के मूल निवासी श्रमण धर्मानुयायी थे । प्रो. फल्ग ने अपनी पुस्तक 'Short Studies In the Science of Comparitive Religion, Pg. 243-244 में स्पष्ट लिखा
“There was also existing throughout uppea India an ancient and highly organised religion, Philosophical, ethical and severally ascetical viz Jainsm. Out of which clearly developed the early ascetical features of Brahmanism and Buddhism." "अति प्राचीन काल से भारत के ऊपरी क्षेत्र में एक बड़ा सुव्यवस्थित धर्म विद्यमान था । उसका उच्च श्रेणी का तत्त्वज्ञान तथा नीति थी एवं अति उग्र तपश्चर्या का समर्थन करने वाला था उसका ही नाम जैन धर्म तथा इसी से ही आगे चलकर ब्राह्मण और बौद्धधर्म को अध्यात्मवादी स्वरूप स्पष्ट रूप से प्राप्त हुआ ।"
__ किसी भी संस्कृति और धर्म का मूल स्रोत एक होता है । जब कि पूर्वाग्रह से युक्त इतिहासकारों ने अपने से पूर्व इतिहासकारों का अनुकरण करते हुए लिखा है कि प्रारम्भ से ही दो संस्कृतियों चली आ रही हैं आर्हत्
और बार्हत् । एक साथ दो संस्कृतियों का जन्म नहीं होता, मूल संस्कृति एक ही होता है । इस बार्हत् वैदिक संस्कृति का जन्म अर्हत् ऋषभदेव जो आर्हत-संस्कृति के संस्थापक थे उनके पौत्र मरिचि तथा उसके शिष्य कपिल द्वारा हुआ । प्राग्वैदिक काल में जो श्रमण संस्कृतिथी वह अर्हत् के नाम से प्रसिद्ध थी । जैनों के प्रसिद्ध नवकार मंत्र में सर्वप्रथम अर्हतों को ही नमस्कार किया गया है। अर्हत परम्परा की पुष्टि श्रीमदभागवत, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, स्कन्धपुराण तथा शिवपुराण आदि ग्रन्थों से भी होती है। इसमें जैन धर्म की उत्पत्ति के विषय में अनेक उपाख्यान भी है। यथार्थ में आर्हत