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जैनत्व जागरण.....
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आचार्य कक्कसूरि जी के शिष्य आचार्य देवगुप्त सूरि जी चतुर्थ ने भी पूर्व भारत की ओर विहार किया । अंग, बंग, कलिंग की भूमि में विहार करते हुए सम्मेत शिखर पर जाकर बीस तीर्थंकरों की तथा अपने गुरुवर्य आचार्य कक्कसूरि की निर्वाण भूमि की यात्रा की थी । इनके समय में मथुरा के श्रेष्ठी गौत्रीय शाहशाखला ने श्री सम्मेत शिखर जी का संघ निकाला था।
जैन परम्परा के इतिहास के पृष्ठ ५०२-३ तथा पंन्यास श्री कल्याण विजय द्वारा सम्पादित तपागच्छ पट्टावली के प्रथम भाग के पृष्ठ १०४ में प्राचीन ग्रंथों के आधार पर उन्होंने - लिखा है कि नौवीं शताब्दी में श्री प्रद्युम्न सूरि ने सम्मेत शिखर की कई बार यात्रा की थी उन्होंने मगध देश में विचरण किया था और नये मंदिर बनवाने और पुराने मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया था । अतः इससे स्पष्ट होता है कि नौवी शताब्दी के पूर्व भी यहाँ पर जैन जातियाँ थी। बड़गाँव, नालन्दा और बिहार शरीफ में जैनों की एक महत्तियाण जाति यहाँ प्राचीन काल से रहती थी । जिसे मणिधारी श्री जिनचंद्र सूरि जी ने प्रतिबोधित किया था। इस जाति में कई गोत्र थे और इन लोगों ने ही पूर्व के जैन मंदिरों और तीर्थों की देख-रेख की थी । विक्रम संवत् १४१२ की राजगृह-विपुलाचल प्रशस्ति तथा संवत् १६९८ की पावापुर गाँव की मंदिर की प्रशस्ति में इस जाति को भरत चक्रवर्ती के मंत्री श्रीदल के संतानीय बताया गया है । नालंदा में पन्द्रह सौ वर्ष प्राचीन और राजगृह में दो हजार वर्ष प्राचीन प्रतिमाएं मिली है। पावापुरी में पहले प्राचीन ईंटों का बनाया हुआ मंदिर था जो दो से अढ़ाई हजार वर्ष पूर्व का था । इसकी ईंट को ले जाकर परीक्षा करके यह प्रामाणित किया गया है। पावापुरी के निकट अनेक छोटे-छोटे गाँवों में जैन प्रतिमाएं यत्र-तत्र बिखरी हुई पड़ी है। महत्तियामों के अतिरिक्त यहाँ सराक जाति के प्राचीन श्रावक भी रहते थे ।
पावा और पुरी दो छोटे गाँव थे। पुरी में गाँव मंदिर है तथा बाहर जल मंदिर है और पावा के सामने ही प्राचीन समवसरण है। उस स्थान पर एक प्राचीन स्तूप और कुंआ आज भी देखा जा सकता है । जिनप्रभ सूरि जी ने विविध तीर्थ कल्प में पावापुरी के विषय में लिखा है- “यहाँ