________________
जैनत्व जागरण.....
१४१
के किले में आज भी दृष्टिगोचर है। 'कुम्भलगढ़ अजेयदुर्ग' पुस्तक में लेखक डॉ. गौरीशंकर अशावा ने लिखा है कि इस दुर्ग को सबसे प्रथम सम्प्रति ने निर्मित कराया था। आज भी वहाँ अनेकों जैन मंदिर है। यहाँ मामादेव मंदिर की खुदाई के दौरान २६८ छोटी-बड़ी सफेद व काले पत्थर की जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई है। कहा जाता है कि महाराणा कुम्भा के समय में यहाँ ७०० जैन मंदिर थे तथा संध्या की पूजा के समय ७०० घंटियां बजते हुए मनुष्य मात्र को अपने जीवन के परम लक्ष्य का ध्यान दिलाती थी। कर्नल टॉड ने लिखा है कि कमलमेर का शेष शिखर समुद्रतल से ३३५३ फीट ऊँचा है । यहाँ ऐसे कितने ही दृश्य विद्यमान है, जिनका समय अंकित करने में लगभग एक मास का समय लगने की सम्भावना है। किन्तु हमने केवल उक्त दुर्ग और एक बहुत पुराने जैन मन्दिर का चित्रांक समाप्त करने का समय पाया था । इस मंदिर की गठन प्रणाली बहुत प्राचीन काल के समान है । कर्नल टॉड ने यह मंदिर राजा सम्प्रति का बनाया हुआ लिखा है। विविध तीर्थ कल्प के अनुसार तत्वार्थसूत्रकी रचना आचार्य उमास्वाति ने पाटलीपुत्र में की थी। उस समय पाटलीपुत्र में मुरुण्ड राजाओं का राज्य था । बृहत् कल्पवृत्ति से पता चलता है कि पाटलीपुत्र के मुरुण्ड राजा जैन धर्मी थे। पादलिप्त प्रबन्ध और प्रभावक चरित्र से स्पष्ट होता है कि पादलिप्त सूरिजी ने पाटलीपुत्र के मुरुण्ड राजा को मस्तिष्क पीड़ा से मुक्त किया था।
The continuity of Jainism at Pataliputra in the 1st-2nd centur A. D. is proved by the Tattvathasutra of Umasvati, which is held in esteem by both the Svetambara and Digambara Jains and was composed in the city towards the begining of the Murudas of Patna. The Brhatkalpavrti refers to a Murundas king of Pataliputra, who was a pious Jain and whose widowed sister had also embraced the same faith. The Padalipta-prabandha of the Prabhavakacarita relates the story how Padalipta cured king Murunda of Pataliputra of his terrible headache.