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सैतीसवाँ बोल - २७
उत्तर - योग ( मन, वचन और काय के व्यापार) का त्याग करने से जीव अयोगी ( मन, वचन, काय के व्यापार से रहित ) होता है, और ऐसा प्रयोगी जीव नवीन कर्मों का बध नही करता और पहले बाघे हुए कर्मों कर्मों को सर्वथा दूर कर देता है ।
व्याख्यान
इस सारगर्भित सूत्र पर विचार करने से पहले यह विचार कर लेना आवश्यक है कि जीव और कर्म का आपस मे क्या सम्बन्ध है ? और इस सम्बन्ध का जीव किस प्रकार निष्कर्म बन सकता है ?
विच्छेद करके योग कर्मबध
का प्रधान कारण है अत: यह विचार कर लेना आवश्यक है । कहना है कि जब जीव और कर्म से है तो फिर जीव कर्मबंधन से सकता है ?
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कुछ लोगो का का प्रबंध अनादिकाल किस प्रकार विमुक्त हो इस प्रश्न का उत्तर यह है कि कर्म अनादिकाल से नही है । कर्म बदलते रहते हैं, अतः कर्मों का धारावाहिक प्रवाह ही अनादिकाल से चला आ रहा है । जैसे नदी का धारा प्रवाह चल रहा है । इस जलधारा मे पानी बद्ध होकर नही रहता, बदलता रहता है । फिर भीतर- ऊपर पानी आता-जाता रहने के कारण धारा प्रवाह भग नही होता । इसी प्रकार कर्म भी जाते-आते रहते है, फिर भी कर्मों का प्रवाह भग नही होता, और इसी कारण कर्म अनादिकालीन कहलाते हैं । परन्तु वास्तव मे कोई भी एक कर्म अनादिकालीन नही होता । कर्मों के इस चलते हुए प्रवाह को अगर रोक दिया जाये तो कर्मों का आगमन रुक जाता है । जैसे ऊपर से आने
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