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सैंतीसवां बोल
योगप्रयाख्यान
जीवात्मा के गुणो का विकास क्रमपूर्वक होता है, शास्त्र का वर्णन भी क्रमपूर्वक है । जब ग्रात्मा अपने गुणो का विकास करके तेरहवे गुणस्थान तक पहुच जाता है, तब आत्मा मे कषाय नही रहता किन्तु योग बना रहता है । ईर्यापथिक की क्रिया तेरहवे गुणस्थान में होती है, यद्यपि वह सूक्ष्म होती है । जो योग तेरहवें गुणस्थान में भी रहता है, वह क्या है ? और उस योग का त्याग करने से जीवात्मा को क्या लाभ होता है ? इस सम्बन्ध मे गौतम स्वामी भगवान महावीर से प्रश्न करते हैं
मूलपाठ
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प्रश्न - जोगपच्चाक्खाणं भंते | जीवे कि जणयइ ? उत्तर - जोगपच्चक्खाणेणं प्रजोरात्तं जणयइ प्रजोगी
ण जीवे नव कम्मं न बधइ, पुग्वबद्ध च निज्जरेइ ||३७||
शब्दार्थ
प्रश्न- भगवन् । योग का त्याग करने से जीव को क्या लाभ होता है ।