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सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ चारित्रपरिणामसंपर्कासंभवादत्यन्तहेयस्याशुभपरिणामस्य फलमालोचयति
अस होदयेण यादा कुणरो तिरियो भवीय गोरइयो। दुक्खसहस्से हिं सदा अभिधुदो भमदि यच्चंतं ॥१२॥
अशुभोदयसे आत्मा, कुनर व तिर्यंच नारकी होकर ।
पीडित भ्रमता अशभो-पयोग अत्यन्त हेय अतः ॥१२॥ अशुभोदयेनात्मा कुनरस्तिर्यग्भूत्वा नैरयिकः । दुःखसहस्रः सदा अभिद्रुतो भ्रमत्यत्यन्तम् ।। १२ ।।
यदायमात्मा मनागपि धर्मपरिणतिमनासादयन्न शुभोपयोगपरिणतिमालम्बते तदा कुमनुष्यतिर्यङ्नारकभ्रमणरूपं दुःखसहस्रबन्धमनुभवति । ततश्चारित्रलवस्याप्यभावादत्यंतहेय एवायमशुभोपयोग इति ।। १२ ।।
___ एवमयमपास्तसमस्तशुभाशुभोपयोगवृत्तिः शुद्धोपयोगाधिकारमारभते ।
नामसंज्ञ---असुहोदय, अत्त, कुणर, तिरिय ोरइय, दुक्खसहस्स, सदा, अभिधुद, अच्चतं । धातुसंज्ञ—भव सत्तायां प्रथमगणी, भम भ्रमणे प्रथमगणी । प्रातिपदिक-अशुभोदय, आत्मन्, कुनर, तिरश्च्, नैरयिक, दुःखसहस्र, सदा, अभिद्रुतः, अत्यन्तं । मूलधातु-भू सत्तायां, भ्रमु चलने भ्वादि, भ्रमु अनवस्थाने दिवादि । उभयपदविवरण-असुहोदयेण अशुभोदयेन-तृ० एक०। आदा आत्मा कूणरो कुनर: तिरियो तिर्यक रइयो नैरयिक: अभिधुदो अभिद्र त-प्रथमा एक० । दक्खसहस्सेहि दुःखसहस्र:-तु० बह० । भवीय भूत्वा-असमाप्तिकी क्रिया । भमदि भ्रमति भ्राम्यति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । अच्चतं अत्यंतअव्यय । निरुक्ति-नरति नृणाति इति वा नरः, उत्कर्षेण अयनं उदय)। समास-(अशुभस्य उदयो अशुभोदयः, दुःखानां सहस्राणि दुःखसहस्राणि तैः ।।१२।। चारित्रका रंच भी अंश नहीं वहाँ अशुभोपयोग होता है । (३) अशुभोपयोगमें पंच इन्द्रियोंको अभिलाषासे सम्बंधित तीव्र संक्लेश होता है या विषयोंके बाधकोंपर द्वेष जगता है। (४) अशुभोपयोग अत्यन्त हेय है, इसका तो रंच भी संपर्क न होना चाहिये । (५) जहाँ चारित्र का कुछ संपर्क है वहाँ चारित्रके साधकों व साधनोंसे अनुराग है वह शुभोपयोग है। (६) परतत्त्वोंके प्रति अनुराग होना बंधन है सो यह शुभोपयोग हेय है । (७) निःप्रत्ययनीक शक्ति विकसित न होनेकी स्थितिमें ज्ञानीके शुभोपयोग आता है उससे उपेक्षा कर ज्ञानी अविकारस्वभाव सहज चैतन्यस्वरूपको प्रात्मरूप अनुभवनेको धुन रखता है । (८) जहाँ समस्त शुभ अशुभ उपयोगकी वृत्ति दूर हो गई वहां ही शुद्धोपयोगकी वृत्तिपर अधिकार बनता है।
, सिद्धान्त-(१) अशुभोपयोगका निमित्त पाकर कार्माणवर्गरणावोंमें अशुभ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। (२) अशुभ अघाती प्रकृतियोंके उदयका निमित्त पाकर आहारवर्गणावोंमें खोटी शरीररचना होती है । (३) घातिया प्रकृतियोंके उदयका व असातावेदनीयके उदयका निमित्त पाकर जीवमें सहस्रों दुःखोंकी वेदना होती है।