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सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ चारित्रपरिणामसंपर्कसम्भववतोः शुद्धशुभपरिणामयोरुपादानहानाय फलमालोचयति
धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सद्धसंपयोगजुदो। पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गमहं ॥११॥
धर्मपरिणतस्वभावी, है यदि शुद्धोपयोगयुत प्रात्मा ।
निर्वाणानन्द लहे, शुभोपयोगी लहे सुरसुख ॥ ११ ॥ धर्मेण परिणतात्मा आत्मा यदि शुद्धसंप्रयोगयुतः । प्राप्नोति निर्वाणसुखं गुभोपयुक्तो वा स्वर्गसुखम् ।।११।।
यदायमात्मा. धर्मपरिणतस्वभावः शुद्धोपयोगपरिणति मुद्वहति तदा निःप्रत्यनीकशक्तितया स्वकार्यकरणसमर्थचारित्रः साक्षान्मोक्षमवाप्नोति । यदा तु धर्मपरिणतस्वभावोऽपि शुभोपयोग
नामसंज्ञ-धम्म परिणदप्प अप्प जदि सुद्धसंपओगजुद णिव्याणसह सहोवजुत्त व सग्गसुह । धातुसंज--प आव प्राप्तौ तृतीयगणी । प्रातिपदिक-धर्म परिणतात्मन् आत्मन् यदि गुद्धसंप्रयोगयुत निर्वाणसुख शुभोपयुक्त स्वर्गसुख । मूलधातु-प्र आप्ल व्याप्तौ स्वादि । निरुक्ति- धरति इति धर्मः, निःशेषेण होकर भी शुभोपयोग परिणतिके साथ युक्त होता है तब विरोधी शक्तिसे सहितपना होनेसे स्वकार्य करनेमें असमर्थ और कथंचित् विरुद्ध कार्य करने वाले चारित्रसे युक्त जीव, जैसे अग्नि से गर्म किया हुआ घी किसी मनुष्यपर डाल दिया जावे तो वह उसकी जलनसे दुःखी होता है, उसी प्रकार वह स्वर्गसुखके बन्धको प्राप्त होता है, इस कारण शुद्धोपयोग उपादेय है और शुभो. पयोग हेय है।
प्रसंगविवरण-अनंतरपूर्व गाथामें प्रात्मरमणरूप चारित्रप्राप्तिके प्रयोजनसे वस्तुका व वस्तुके परिणामस्वभावका वर्णन किया था। अब इस गाथामें चारित्रमार्गके सम्पर्कमें पाये हुए आत्माको शुभ परिणामके भी त्यागके लिये व शद्ध परिणामके पानेके लिये शुद्धोपयोग व शुभोपयोगके फलकी आलोचना की है।
तथ्यप्रकाश- (१) गाथाकी उत्थानिकामें "पालोचयति'' क्रिया देकर शुद्धोपयोग व शुभोपयोगके फलकी आलोचना की है । (२) गुण व दोषको यथावत् दिखानेका नाम पालोचना है । (३) प्रात्माका स्वभाव अात्मस्वभावरूप धर्मसे परिणत होना है। (४) यथायोग्य घातिकर्मप्रकृति विपाकके अभाव में प्रात्मा मोक्षमार्गमें लगता है । (५) साक्षात् मोक्षमार्ग मोहक्षयज शुद्धोपयोग है । (६) यथाशक्ति धर्ममार्गमें चलते हुए भी प्रात्मा शुभोपयोग परिणतिसे संगति करता है तो वह स्वर्गादि सुखोंका बन्धन पाता है । (७) शुभोपयोगका फल भोगनेके पश्चात् यह ज्ञानी परमसमाधिसामग्रीके सद्भावमें शुभोपयोगातीत शुद्धोपयोगसे साक्षात् मोक्ष पाता है। (८) अशुभोपयोगसे हटकर शुभोपयोगसे गुजरकर मात्र शुद्धोपयोगसे मोक्ष होता है । (६) अशुभोपयोग अत्यंत हेय है, शुभोपयोग हेय है, शुद्धोपयोग अत्यन्त उपादेय है ।