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प्रवचनसार:
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परिणत्या संगच्छते तदा सप्रत्यनीकशक्तितया स्वकार्यकररणासमर्थः कथंचिद्विरुद्ध कार्यकारिचारित्रः शिखितप्तघृतोप सिक्तपुरुषो दाहदुःखमिव स्वर्गसुखबन्धमवाप्नोति । श्रतः शुद्धोपयोग उपादेयः शुभोपयोगो हेयः ॥ ११ ॥
वानं गमनं निर्वाणं । समास-परिणतश्चासौ आत्मा चेति परिणतात्मा, शुद्धश्चासौ संप्रयोगः इति शुद्धसंप्रयोग:, तेन युतः, निर्वाणस्य सुखं निर्वाणसुखं, शुभेन उपयुक्तः शुभोपयुक्त:, (स्वर्गस्य सुखं स्वर्गसुखं । उभयपदविवरण - धम्मेण धर्मेण - तृतीया एक० । परिणदप्पा परिणतात्मा अप्पा आत्मा सुद्धसंपओगजुदो शुद्धसंप्रयोगयुतः सुहोवजुत्तो शुभोपयुक्तः प्रथमा एक पावदि प्राप्नोति वर्तमान अन्य० एक० क्रिया । व्विाणसुहं निर्वाणसुखं सग्गसुहं स्वर्गसुखं- द्वितीया एकवचन ॥ ११ ॥
सिद्धान्त - ( १ ) शुद्धोपयोगका फल स्वात्मोपलब्धिरूप सिद्धिका लाभ है । (२) शुभो - पयोगका फल काल्पनिक सुखका बन्धन है ।
दृष्टि - १ - शुद्ध निश्चयनय (४६) । २ - अशुद्ध निश्चयनय (४७) ।
प्रयोग - श्रविकारस्वभाव सहज चैतन्यस्वरूपको प्रतीति रुचि अनुभूति के मार्ग प्रवर्त कर शुद्धोपयोगवृत्तिके लाभके लिये आत्मविश्राम करना ॥ ११ ॥
अब चारित्रपरिणाम के साथ सम्पर्कका प्रभाव होनेसे अत्यन्त हेयभूत प्रशुभ परिनामका फल विचारते हैं - [ शुभोदयेन ] अशुभ उदयसे [आत्मा] आत्मा [ कुनर: ] कुमनुष्य [ तिर्यग्] तिर्यंच [ नैरयिकः ] और नारकी [भूत्वा ] होकर [दुःखसहस्र : ] हजारों दुःखोंसे [ सदा अमिद्रतः ] सदा पीड़ित हुआ [ श्रत्यंतं भ्रमति ] संसार में अत्यन्त भ्रमण करता है । तात्पर्य - प्रशुभ परिणामके फलमें पापके उदयसे जीव दुर्गतियों में दुःखी होता हुआ भ्रमण करता है ।
टीकार्थ जब यह ग्रात्मा किंचित् मात्र भी धर्मपरिणतिको प्राप्त न करता हुग्रा शुभोपयोग परिणतिका अवलम्बन करता है, तब यह कुमनुष्य, तिर्यंच प्रौर नारकी के रूपमें परिभ्रमण करता हुआ, तद्रूप हजारों दुःखोंके बन्धनका अनुभव करता है; इसलिये चारित्रके लेशमात्रका भी प्रभाव होनेसे यह प्रशुभोपयोग अत्यन्त हेय ही है ।
प्रसंगविवरण - प्रनन्तरपूर्व गाथामें चारित्रपरिणाम सम्पर्क वाले शुद्ध परिणामके ग्रहणके लिये और चारित्रपरिणामसंभव वाले शुभ परिणामके त्यागके लिये उन दोनों परिणामों के फलकी आलोचना की थी । अब इस गाथा में अत्यंत हेय अशुभोपयोगके फलकी प्रालोचना की गई है ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) जिसके रंच भी धर्म परिणति नहीं और अशुभोपयोगका परिरणमन है वे खोटे मनुष्य, तिर्यंच व नारकोंमें भ्रमण कर महान् दुःख भोगते हैं । ( २ ) जहाँ