Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ सव्वत्थ' इत्ति सुत्तणिदेसादो । ण तं सेसवष्टसंठाणाणि चेव अस्सिदण परूविदं अउत्तसेससंठाणवियप्पे अस्सिदूण परूविदत्तादो। . * जा सा भावविहत्ती सा दुविहा, आगमदो य णोआगमदो य ।
६२२. पुव्वं णिदिभावविहत्तीसंभालणटं 'जा सा भावविहत्ति'त्ति परूविदं । आगमो सुदणाणं, णोआगमो सुदणाणवदिरित्तभावो । एवं भावविहत्ती दुविहा चेव होदि ।
* आगमदो उवजुत्तो पाहुडजाणओ। ६ २३. पाहुडजाणओ जीवो उवजुत्तो पाहुडउवजोगसहिओ आगमविहत्ती होदि। * णोआगमदो भावविहत्ती ओदइओ ओदइयस्स अविहत्ती।
२४. ओदइओ उपसमिओ खइओ खओवसमिओ पारिणामिओ चेदि णोआगमभावो पंचविहो होदिः सव्वभावाणमेदेसु चेव पंचसु भावेसु पवेसादो । तत्थ ओदइओ भी तीन भंग कहना चाहिये' यह अर्थ कहांसे उपलब्ध होता है ?
समाधान-'एवं सव्वत्थ' इस निर्देशसे यह अर्थ उपलब्ध होता है। क्योंकि यह सूत्र केवल गोल आकारके शेष भेदोंकी अपेक्षा ही नहीं कहा है किन्तु संस्थानके अनुक्त समस्त विकल्पोंकी अपेक्षासे भी कहा है। ___* ऊपर जो भाव विभक्ति कही है वह दो प्रकारकी है-आगमभावविभक्ति और नोआगमभावविभक्ति।
२२. पहले विभक्तिका निक्षेप करते समय जिस भावविभक्तिको कह आये हैं उसीका निर्देश करनेके लिये चूर्णिसूत्र में 'जा सा भावविहत्ती' यह पद दिया है। आगमका अर्थ श्रुतज्ञान है और श्रुतज्ञानसे व्यतिरिक्त भावको नोआगम कहते हैं। इस प्रकार भावविभक्ति दो प्रकारकी ही होती है। . * जो जीव विभक्तिविषयक शास्त्रको जानता है और उसमें उपयोगसहित है उसे आगमभावविभक्ति कहते हैं।
२३. जो जीव विभक्तिका प्रतिपादन करने वाले शास्त्रका ज्ञाता है और उसमें उपयुक्त है अर्थात् उसका उपयोग भी विभक्तिविषयक शास्त्रमें लगा हुआ है। वह जीव आगमभावविभक्ति कहलाता है।
* नोआगमभावविभक्ति, यथा-एक औदयिक भाव दूसरे औदयिक भावके साथ अविभक्ति है।
२४. औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिकके भेदसे नोआगमभाव पांच प्रकारका है, क्योंकि, समस्त भावोंका इन्हीं पांच भावोंमें अन्तर्भाव हो जाता है। उनमेंसे एक औदयिकभाव दूसरे औदयिक भावके साथ अविभक्ति है, क्योंकि
(१) "भावविभक्तिस्तु जीवाजीवभावभेदात् द्विधा। तत्र जीवभावविभक्तिः औदयिकोपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकसान्निपातिकभेदात् षट्प्रकारा। x अजीवभावविभक्तिस्तु भूतानां वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानपरिणामः । अमूर्तानां गतिस्थित्यवगाहवर्तनादिक इति ।" सू० श्रु०१० ५ ० १ टीका।
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