Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिपिहत्ती २ * वह तंसस्स वा चउरंसस्स वा आयदपरिमंडलस्स वा विहत्ती।
१७. कुदो ? सरिसत्ताभावादो । एवं तंसं- [चउरंसा-] ईणं पि वत्तव्वं । * वियप्पेण वसंठाणाणि असंखेज्जा लोगा।
१८. एदेसिमसंखेज्जा[ज्ज]लोयत्तं आगमदो चेवावगम्मदे, ण जुत्तीदो; असंखेविशेषार्थ-यहां संस्थानके विषयमें दो शंकाएं उठाई गई हैं। पहली यह है कि संस्थान द्रव्य आदिकी तरह अलग तो पाये नहीं जाते। वे तो द्रव्यादिगत ही होते हैं और द्रव्यादि परस्पर भिन्न होते हैं। अर्थात् एक द्रव्य दूसरे द्रव्यसे भिन्न रहता है, एक क्षेत्र दूसरे क्षेत्रसे भिन्न होता है, अतः इनके आश्रयसे रहनेवाले संस्थान एक कैसे हो सकते हैं ? वीरसेनस्वामीने इस शंकाका जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि स्वयं द्रव्यादि संस्थानरूप नहीं हैं। जो द्रव्य इस समय त्रिकोण है वह कालान्तरमें गोल हो जाता है। इसी प्रकार अन्यके सम्बन्धमें भी जानना । अतः द्रव्यादिकसे संस्थानका कथंचित् भेद सिद्ध हो जाता है। और जब संस्थान द्रव्यादिकसे भिन्न हैं तब द्रव्यादिकके भेदसे संस्थानमें भेद मानना युक्त नहीं। संस्थानों में यदि भेद होगा तो स्वगत भेदोंकी अपेक्षासे ही होगा अन्य द्रव्यादिकी अपेक्षासे नहीं। दूसरी शंका यह है कि पृथक् दो द्रव्योंमें जो समान दो गोलाइयां रहेंगी उन्हें समान कहना चाहिये एक नहीं। वीरसेनस्वामीने इस शंकाका जो समाधान किया उसका भाव यह है कि उन समान दो गोलाईयोंमें जो हमें पार्थक्य दिखाई देता है वह द्रव्यादिभेदके कारण दिखाई देता है। यदि हम द्रव्यादिकी विवक्षा न करें तो वे गोलाईयां एक हैं । हमने प्रातः एक गोलाई देखी और मध्यान्हमें भी उसे देखा । इसप्रकार कालभेदसे उसमें भेद हो जाता है। पर यदि कालभेदकी विवक्षा न करें तो वह एक है। एक आदमीने किसी सुन्दर प्रतिमाको देखकर शिल्पीसे उसी आकारकी दूसरी प्रतिमा बनवाई । प्रतिमाके बन जाने पर बनवानेवाला उसे देखकर कहता है वही है' इसमें कोई सन्देह नहीं। यद्यपि यहां पहली प्रतिमासे यह दूसरी प्रतिमा भिन्न है पर आकार भेद न होनेसे आकारकी अपेक्षा वे एक कही जाती हैं। इस प्रकार द्रव्यादिकी अपेक्षा न रहने पर संस्थानोंमें अभेद सिद्ध हो जाता है।
* विवक्षित गोलाई त्रिकोण चतुष्कोण अथवा आयत परिमंडल संस्थानके साथ विभक्ति है।
१७. चूंकि गोलाईकी त्रिकोण आदि संस्थानोंके साथ सदृशता नहीं पाई जाती है इसलिये गोलाई त्रिकोण आदिके समान नहीं है । इसी प्रकार त्रिकोण चतुष्कोण आदिका भी कथन करना चाहिये ।
* उत्तरोत्तर मेदोंकी अपेक्षा गोल आकार असंख्यात लोकप्रमाण हैं । ...१८. गोल आकार असंख्यात लोकप्रमाण हैं, यह बात आगमसे ही जानी जाती है
(१) तस्स (४० . . . . ४) ईणं-स०; तस्स पयार्हणं-अ० ।
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