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कालिदास पर्याय कोश
2. कृष्णः-पुं० [कर्ष [कर्षत्यरीन महाप्रभु शक्त्या। यद्वा कर्षति आत्मसात् करोति
आनन्दत्वेन परिणमयति भक्तानां मनः इति यावत्। कृषेवणे, इति बाहुलकात् वर्ण विनापि नक् णत्वं च।] विष्णु, प्रभु। व्यादिश्यते भूधरतामवेक्ष्य कृष्णेन देहोद्वहनाय शेषः।। 3/13 प्रलय होने पर अपने सोने के लिए भगवान् ने शेष को ही अपनी शय्या क्यों बनाया था? क्योंकि वे देख चुके थे कि शेषनाग जब पृथ्वी को धारण कर सकते
हैं, तो मेरा बोझ भी सह लेंगे। 3. पद्मनाभ:-पुं० [पद्मं नाभौ यस्य। अच् प्रत्यन्वपूर्वात् सामलोम्नः इत्यत्र 'अच्'
इति योग विभागाद् अच। ब्रह्योत्पत्ति कारणीभूत पद्मस्य नाभिजातत्वादस्य तथात्वम्] विष्णु, प्रभु। पद्मनाभ चरणांकिताश्मसु प्राप्त वत्स्वभृत विप्र षो नवाः।। 8/23 विष्णु के चरणे की छाप और समुद्र मंथन के समय उड़े हुए अमृत की बूंदों के
नये-नये छींटे पड़े हुए थे। 4. परमेष्ठिन:-पुं० [परमे व्योम्नि चिदाकाशे ब्रह्मपदे वा तिष्ठतीति। स्था गति
निवृत्तौ परमे कित्, इति इनि स च कित्, 'हलदन्तात् सप्तभ्याः संज्ञायाम् इत्यलुक् स्थास्थिन् स्थूणाम् इति] विष्णु, प्रभु। यथैव श्लाघ्यते गंगा पादेन परमेष्ठिनः।। 6/70
जैसे गंगा जी, विष्णु के चरणों से निकलकर अपने को बहुत बड़ा मानती हैं। 5. पुरुषः-पुं० [पुरति अग्रे गच्छतीति, पुर+'पुरः कुषन्' इति कुषन्] विष्णु, प्रभु।
तमभ्यगच्छत्प्रथमो विधाता श्री वत्सल क्षमा पुरुषश्च साक्षात्। 7/43 ब्रह्मा और विष्णु ने आकर उनकी जय जयकार करके उनकी महिमा और भी
बढ़ाई। 6. विष्णुः-पुं० [वेवेष्टि व्याप्नोति विश्वं यः। विष्ल व्याप्तौ 'विषैः किच्च' इति
नु वेषति सिञ्यति आप्यायते विश्वमिति वा। विष्णाति वियुनक्ति भक्तान् माया पसारेण संसारादिति वा] विष्णु। परिच्छिन्न प्रभावर्द्धिर्न मया न च विष्णुता।। 2/58
हम और विष्णु भी उनकी महिमा का ठिकाना अब तक नहीं लगा पाए हैं। 7. हरि:-पुं० [हरति पापानीति ह+हपिषिरुहीति' इन्] विष्णु, प्रभु, ईश्वर।
हरिचक्रेण तेनास्य कण्ठे निष्कमिवार्पितम्।। 2/49
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