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कालिदास पर्याय कोश मार्गाचल व्यतिकरा कुलितेव सिन्धुः शैलाधिराजतनया न ययौ न तस्थौ।
5/85 जैसे धारा के बीच में पहाड़ा पड़ जाने से न तो नदी आगे बढ़ पाती है, न पीछे हट पाती है, वैसे ही हिमालय की कन्या भी न तो आगे ही बढ़ पाईं, न खड़ी ही
रह पाईं। 2. गिरि :-पं० [गिरति धरयति पृथ्वी, गियते स्तूयते गुरुत्वाद्वा । कृगशपकटि
भिदिछिदिभ्यश्च' इति इ किच्च] पर्वत। एक पिङ्गल गिरौ जगद्गुरुर्निर्विवेश विशदाः शशिप्रभाः। 8/24 कैलास पर्वत पर रहकर शंकरजी ने उजली चाँदनी का भरपूर आनन्द लूटा। चन्द्रपाद जनित प्रवृत्तिभिश्चन्द्र जल बिन्दुभिर्गिरिः।। 8/67 चन्द्रमा की किरण पड़ने के कारण इस पर्वत के चन्द्रकान्त मणि की चट्टानों से जल की बूंदें टपक रही हैं। उन्नता वनत भावत्तया चन्द्रिकासतिमिरा गिरेरियम्।। 8/69
पहाड़ के ऊँचा होने से कहीं तो चाँदनी पड़ रही है, कहीं अँधेरा है। 3. पर्वत :-पुं० [पार्वती पूरयतीति, पर्व पूरणे + 'भृमृदृशियजिपर्वीति' अतच्।
यद्वा पर्वाणि भागाः सन्त्यत्र, पर्वमरुद्श्याम् इति, तप] पर्वत। आक्रीड पर्वतास्तेनकल्पिताः स्वेषु वेश्मसु। 2/43
उसने अपने घर में ले जाकर खेल के पहाड़ बना डाले हैं। 4. शिखर :-पुं० [शिखरोऽस्यास्तीति । शिखर+इति] पर्वत ।
यश्चाप्सरो विभ्रमण्डनानां संपादयिवी शिखरैर्विभर्ति।। 1/4 चोटियों को देखकर सन्ध्या होने के पहले ही वहाँ की अप्सराओं को यह भ्रम हो जाता है, कि संध्या हो गई है और इस हड़बड़ी में वे सायंकाल के नाच-गान के लिए अपने शृंगार करना प्रारंभ कर देती हैं। प्रजासु पश्चत्प्रथितं तदाख्याया जगाम गौरीशिखरं शिखण्डितमत्। 5/7 वे हिमालय की उस चाटी पर तप करने पहुंची, जहाँ पर बहुत से मोर रहा करते थे और पीछे जिसका नाम उन्हीं के नम पर गौरीशिखर पड़ गया। संध्यायाप्यनुगतं रवेर्वपुर्वन्द्य मस्तशिखरे समर्पितम्।। 8/44 देखो ! पूजनीय सूर्य अस्ताचल को चले, तो सन्ध्या भी उनके पीछे-पीछे चल दी।
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