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कुमारसंभव किया करती थीं, उस समय उन्हें देखने के लिए दूर-दूर से ऋषि उनके पास
आया करते थे। 6. वह्नि :-[वहति धरति हव्यं देवार्थमिति] व+ वहिश्रिश्रुरिवति' नि] अग्नि।
कामस्तु बाणावसरं प्रतीक्ष्य पतङ्गवद्वह्नि मुखं विविक्षुः। 3/64 जैसे कोई पतंगा आग में कूदने को उतावला हो, वैसे ही कामदेव ने सोचा कि बस बाण छोड़ने का यही ठीक अवसर है। तावत्स वह्निर्भवनेत्र जन्मा भस्मावशेष मदनं चकार । 3/72 इतनी देर में तो शंकरजी की आँखों से निकलने वाली, उस आग ने कामदेव को जलाकर राख ही तो कर डाला। निकाम तप्ता विविधेन वह्निना न भरश्चरेणेन्धनसंभृते न सा। 5/23 इधर ईंधन की आग तथा सूर्य की गर्मी से तपे हुए पार्वती जी के शरीर से भाप निकल उठी। जयेति वाचा महिमानमस्य संवर्धयन्तौ हविषेव वह्निम्।। 7/43 जैसे आग में घी डालने से उसकी लपट बढ़ जाती है, वैसे ही उनकी जय-जय कार करके उनकी महिमा और भी बढ़ा दी। वधूं द्विजः प्राह तवैष वत्से वह्निर्विवाहं प्रति कर्म साक्षी।। 7/83 तब पुरोहित जी ने पार्वती से कहा कि हे वत्से! यह अग्नि तुम्हारे विवाह का
साक्षी है। 7. हविर्भुज :-अग्नि।
शुचौ चतुर्णां ज्वलतां हविर्भुजां शुचिस्मिता मध्यगता सुमध्यमा। 5/20 पतली कमर वाली हँसमुख पार्वती जी गरमी के दिनों में अपने चारों ओर आग
जलाकर उसी के बीच खड़ी रहने लगीं। 8. हुताशन :-पुं० [हुतम् आहुतिद्रव्यम् अशनमस्य] अग्नि।
समीरणो नोदयितो भवेति व्यादिश्यते केन हुताशनस्य । 3/21 भला पवन को कहीं यह थोड़े कहा जाता है, कि तुम जाकर आग की सहायता करो।
अचल
1. अचल :-पुं० [न चलति यः। चल+पचाद्यच, नबसमासः] पर्वत।
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