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कालिदास पर्याय कोश
नवोटजाभ्यन्तर संभृतानलं तपोवनं तच्च बभूव पावनम् । 5/17
वहाँ नई पर्णकुटी में सदा हवन की अग्नि जलती रहती थी, इन सब बातों से तपोवन बड़ा पवित्र हो गया था।
अवतेरुर्जटाभारैर्लिखितानलनिश्चलैः । 7/48
चित्र में बनी हुई आग की निश्चल लपटों के समान अपनी जटाएँ लिए दिए। 3. कृशानो :- पुं० [कृश्यति तनू करोति तृणकाष्ठादितस्तुजातमिति । ऋतन्यञ्जीति आनुक् प्रत्ययः] अग्निः ।
ऋते कृशानोर्न हि मन्त्रपूतमर्हन्ति तेजाँस्यपराणि हव्यम् । 1 / 51
जैसे मंत्र से दी हुई हवन की सामग्री, अग्नि को छोड़कर और कोई नहीं ले
सकता ।
,
4. ज्वलन :- पुं० [ ज्वलतीति ज्वल् + ' जुचङ्क्रम्यन्द्रस्य सृगृधिज्वलशुचलषपतपद:' इति युच्] अग्नि ।
विधुरां ज्वलनाति सर्जनान्ननु मी प्रापय पत्युरन्तिकम् ।। 4/32
मेरा दाह करके मुझे मेरे पति के पास पहुँचा दो ।
तदनु ज्लवनं मदर्पितं त्वरयेर्दक्षिणवात बीजनैः ।। 4/36
फिर शीघ्रता से दक्षिण पवन का पंखा झलकर उसमें बड़ी लपटें भी उठा दो । अथा जिना षाढधरः प्रगल्भवाग्ज्वलन्निव ब्रह्मयेन तेजसा । 5/30 इसी बीच एक दिन ब्रह्मचर्य के तेज से चमकता हुआ सा, हिरण की छाल ओढ़े और पलाश का डंड हाथ में लिए हुए ।
न तु सुरतसुखेर्भ्याश्छिन्नतृण्णो बभूव ज्वलन इव समुद्रान्तर्गतस्तज्जलौघैः ।
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शंकरजी का जी इतने संभोग से भी उसी प्रकार नहीं भरा, जैसे समुद्र के जल में रहने पर भी बड़वानल की प्यास नहीं बुझ पाती ।
5. जातवेद :- पुं० [ विद्यते लभ्यते इति । विद्+लाभे + असुन् । जातं वेदो धनं
यस्मात्] अग्निः ।
जातवेदो मुखान्मायी मिषतामाच्छिनत्तिनः । 2/46
अग्नि के मुँह से हमारा भाग छीन लेता है।
कृताभिषेकां हुत जातवेदसं त्वगुत्तरा संगवतीमधीतिनीम् । 5/16
जब वे स्नान करके, हवन करके, वल्कल की ओढ़नी ओढ़ कर बैठी पाठ पूजा