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कालिदास पर्याय कोश प्रायेण गृहिणी नेत्राः कन्यार्थेषु कुटुम्बिनः। 6/85 जब कन्या के सम्बन्ध में कोई बात होती है, तो गृहस्थ लोग अपनी स्त्रियों से ही सम्मत लिया करते हैं। भूतार्थ शोभाह्रियमाण नेत्राः प्रसाधने संनिहितेऽपि नार्यः। 7/13 सिंगार की सब वस्तुएँ पास होने पर भी वे सब पार्वती जी की स्वभाविक शोभा पर इतनी लट्ट हो गईं, कि कुछ देर तक तो वे सुध-बुध खोकर उनकी ओर
एक-टक निहारती हुई बैठी रह गईं। 5. लोचन :-क्ली० [लोचतेऽनेनेति, लोच, ल्युट्] आँख, नेत्र ।
श्रृणु येन सकर्मणा गतः शलभत्वं हरलोचनार्चिषि। 4/40 यह महादेव जी की आँख की ज्वाला में पतंग बनकर कैसे जला, वह सुनो। आलोचनान्तं श्रवणे वितत्य पीतं गुरोस्तद्वचनं भवान्या।7/84 आँखों तक अपने कान फैलाकर पार्वती जी ने पुरोहित की बात, वैसे ही आदर से सुनी। तस्य पश्यति ललाट लोचने मोघयत्न विधुरा रहस्यभूत। 8/7 पर शिवजी ऐसे गुरु थे, कि झट अपना तीसरा नेत्र खोल लेते और ये हार मानकर बैठ जाती। कुड्मलीकृत सरोज लोचनं चुम्बतीव रजनी मुखं शशी। 8/63 मानो चन्द्रमा अपनी किरण रूपी उँगलियों से रात रूपी नायिका के मुंह पर फैले हुए अँधेरे रूपी बालों को हटाकर, उसका मुँह चूम रहा हो और रात भी उस चुम्बन का रस लेने के लिए अपने कमल रूपी नेत्र मूंदे बैठी हो। स प्रजागर कषाय लोचनं गाढदन्त परिताडिताधरम्। 8/88 रात भर जागने से पार्वती जी की आँखें लाल हो रही थीं, ओठों पर शिवजी के
दाँतों के घाव भरे पड़े थे। 6. विलोचन :-क्ली० [वि०+लोच्+ल्युट्] आँख, नेत्र।
साचीकृता चारूतरेण तस्थौ मुखेन पर्यस्तविलोचनेन। 3/68 लजीली आँखों से अपना अत्यन्त सुन्दर मुख कुछ तिर्छा करके खड़ी रह गईं। अवधान परे चकार सा प्रलयान्तोन्मिषिते विलोचने। 4/2 मूर्छा हटते ही वह चारों ओर आँखें फाड-फाड़कर देखने लगी। विकुंचित भूलतमाहिते तया विलोचने तिर्यगुपान्तलोहिते। 5/74
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