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कुमारसंभव
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पश्य धातु शिखरेषु भानुना संविभक्तमिव सांध्यमातपम्।। 8/46 रंगीन धातु वाली हिमालय की चोटियों को देखने से ऐसा जान पड़ रहा है, कि अस्त होते हुए सूर्य ने अपनी लाल धूप इन सबको बाँट दी हो। कल्पवृक्षशिखरेषु संप्रति प्रस्फुरद्भिरिव पश्य सुन्दरि। 8/68 हे सुन्दरि ! इस समय कल्पवृक्ष की फुनगियों पर चमकती हुई किरणों को
देखकर ऐसा जान पड़ रहा है। 5. शृंग :-क्ली० [ हिंसायाम्+ शृणातेर्हस्वश्च' इति गत् धातोर्हस्वत्वं कित्वं
नुट च प्रत्ययस्य] पर्वतोपरिभाग, पर्वत। उद्वेजिता वृष्टिभिराश्रयन्ते शृंगाणि यस्यात पवन्ति सिद्धाः। 1/5 जब अधिक वर्षा होने से घबरा उठते हैं, तब वे बादलों के ऊपर उठी हुई उन चट्टानों पर जाकर रहने लगते हैं, जहाँ उस समय धूप बनी रहती है। उत्पाट्य मेरु शृङ्गाणि क्षुण्णानि हरितां खुरैः। 2/43 सूर्य के घोड़ों से ढीली पड़ी हुई मेरु की चोटियों को उखाड़-उखाड़ कर। उच्चैर्हिरण्मयं शृंगं सुमेरोर्वितथी कृत्।। 6/72 सुमेरु पर्वत की सुनहरी और ऊँची चोटियों को भी नीचा दिखा दिया। विमान शृङ्गाण्यवगाहमानः शशंस सेवावसरं सुरेभ्यः। 7/44 उसकी ध्वनि ने देवताओं के विमानो की छतरियों में गूंजकर यह सूचना दी की, अब सबको अपने-अपने काम में जुट जाना चाहिए। शैल :- [शिलाः सन्त्यत्रेति । शिला + ज्योत्स्नादित्वादण्] पर्वत। मनः शिला विच्छुरिता निषेदः शैलेयनद्धेषु शिला तलेषु। 1/55 मैनसिल के रंग से अपने शरीर रंगे शंकर जी के गण लोग, शिलाजीत से पुती हुई चट्टानों पर बैठे पहरा देते रहते थे।
अच्युत 1. अच्युतः-पुं० [न च्यवते स्वरूपतो न गच्छति यः, नित्य इति यावत् । च्यु कर्तरि
क्त, नञ् समासः] विष्णु, प्रभु। तत्रा वतीर्याच्युत दत्त हस्तः शरद्धनाद्दीधितिमानि वोक्ष्णः।। 7/701 वहाँ पहुँचने पर विष्णु जी ने हाथ का सहारा देकर महादेव जी को इस प्रकार बैल से उतार लिया, मानो शरद के उजले बादलों से सूर्य को उतार लिया हो।
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