Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
View full book text
________________
शक संवत् 531, अर्थात् ईस्वी सन् 609 के पूर्व हुए हैं, क्योंकि शक संवत् 531 का आलेख विशेषावश्यकभाष्य की एक ताड़पत्रीय पर है। उसकी एक प्रतिलिपि आज भी जैसलमेर के ज्ञानभण्डार में उपलब्ध है। इसको प्रमाण मानते हुए हम यह कह सकते हैं कि विशेषावश्यकभाष्य का रचनाकाल शक संवत् 531 के बाद का तो नहीं हो सकता, अतः जिनभद्रगणि का काल विक्रम की सातवीं शताब्दी या उसका उत्तरार्द्ध माना जा सकता है। इसी के आधार पर यह भी प्रमाणित होता है कि ध्यानशतक की रचना विक्रम की सातवीं शताब्दी में कभी हुई होगी।
पण्डित दलसुखभाई की मान्यतानुसार ध्यानशतक का रचनाकाल विक्रम की दूसरी या तीसरी शती होना चाहिए, क्योंकि ध्यानशतक के रचयिता नियुक्तिकार ही मानते हैं- इस मान्यता का खण्डन हम पहले कर चुके हैं, फिर भी यदि हम नियुक्तियों की रचना का समय ईस्वी सन् दूसरी शती मानते हैं, तो इस ग्रन्थ के रचनाकाल की पूर्व सीमा ईसा की दूसरी शताब्दी और उत्तर सीमा ईस्वी सन् छठवीं शताब्दी या विक्रम की सातवीं शती के मध्य स्वीकार किया जा सकता है।
पं. बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्रीजी स्थानांग आदि सभी अर्द्धमागधी आगमों को वल्लभी-वाचना (पांचवीं शताब्दी) की रचना मानते हैं, किन्तु यह उनका भ्रम है, क्योंकि वल्लभी-वाचना में अर्द्धमागधी आगमों की रचना नहीं हुई, अपितु इन आगमों का सम्पादन एवं लेखन-कार्य हुआ है। उनकी रचना तो उसके तीन सौ या चार सौ वर्ष पूर्व हो चुकी थी। 'झाणज्झयण' का आधारभूत ग्रन्थ स्थानांगसूत्र स्वीकार किया जा सकता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हम यह कह सकते हैं कि उसकी रचना 'झाणज्झयण' के पहले हो चुकी थी। विद्वानों ने, इसको ईसा की द्वितीय या तृतीय शताब्दी के पहले रचा हैयही माना है।
समवायांग और नन्दीसूत्र में उल्लेखित विषय-वस्तु से स्थानांग में वर्णित आयारदशा आदि ग्रन्थों के नाम और उनकी विषयवस्तु काफी प्राचीन दिखाई देती है। वे नागार्जुनीय (तीसरी शती) और देवर्द्धिगणि की वाचना के पूर्व के हैं और ध्यानाध्ययन (ध्यानशतक) में ध्यान से सम्बन्धित विषय-वस्तु का अनुकरण इन्हीं ग्रन्थों के आधार पर किया गया है। यदि 'झाणज्झयण', अपर नाम ध्यानशतक का आधार स्थानांगसूत्र रहा हो, तो भी वह ईस्वी सन् की दूसरी शती से पूर्ववर्ती तथा छठवीं, सातवीं शती से परवर्ती नहीं है, क्योंकि विक्रम की आठवीं शताब्दी के मध्यकाल में हुए हरिभद्र स्वंय ने
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org