Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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भाग-दौड़ को समाप्त करने के लिए और चित्त की एकाग्रता को बनाए रखने के लिए आलम्बन की आवश्यकता होती है। आलम्बन का अर्थ है-- किसी एक विषय या वस्तु पर चित्त को केंद्रित करने का अभ्यास करना।
आलम्बन के माध्यम से चित्तवृत्ति वांछित विषय पर केन्द्रित होती है। फलतः, चित्तवृत्ति की चंचलता समाप्त होकर चित्त एकाग्र होने लगता है। संक्षेप में कहें, तो चित्त की एकाग्रता के लिए प्राथमिक स्तर पर आलम्बन आवश्यक है। मन या चित्त निर्विषय होकर अपना अस्तित्व खो देता है। यदि ध्यान चित्तवृत्ति की एकाग्रता की साधना है, तो उसके लिए ध्यान में आलम्बन की आवश्यकता बनी रहती है।
आलम्बन से निरालम्बन की ओर यद्यपि ध्यान के लिए आलम्बन की आवश्यकता होती है, किन्तु ध्यान का लक्ष्य तो आलम्बन से निरालम्बन की ओर ही होता है।
चाहे कोई भी साधना-पद्धति हो, उसमें योगसाधना या ध्यानसाधना का लक्ष्य चित्तवृत्ति का विलय ही भाना गया है। - मोक्ष का अन्तिम साधन 'योग' है- यह बात न केवल जैनदर्शन स्वीकार करता है, अपितु समस्त भारतीय-दर्शन समवेत रूप से इसका समर्थन करते हैं।882
___ वैदिक-साहित्य के अन्तर्गत योग का साध्य समाधि से है,383 जबकि जैन तथा बौद्ध-साहित्य में योग का सामान्य अर्थ क्रिया या प्रवृत्ति है, जो शुभ और अशुभ- दोनों प्रकारों से होती है।984
बौद्ध-साहित्य में वर्णित काययोग, भावयोग और दृष्टियोग इत्यादि में योग शब्द का प्रयोग बन्धन अथवा संयोजन के अर्थ में हुआ है।985 योग शब्द का सीधा अर्थ हैजोड़ना।886.
882 (क) योगः कल्पतरू: श्रेष्ठो योगश्चिन्तामणिः परः ।
योग प्रधानं धर्माणां योगः सिद्धे स्वयं ग्रहः ।। - योगबिन्दु, श्लोक- 37. (ख) योगः समाधि स च सार्वभौमश्चित्तस्य धर्मः ।
(ग) दीर्घनिकाय- 1/2, पृ. 28-29. 883 युज समाधो (दिवादिगणीय-युज्यते आदि) पाणिनीय धातुपाठ- 4/68. 884 (क) उत्तराध्ययनसूत्र, अध्याय- 29, गाथा- 8. (ख) अंगुत्तरनिकाय- 2/12. 885 अभिधर्मकोश- 5/40. 886 युजिर योग (रुधादिगणीय-युनक्ति, युङते आदि), पाणिनीय धातुपाठ- 7/7.
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