Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji

View full book text
Previous | Next

Page 423
________________ नवें प्रकाश के मात्र सोलह श्लोक हैं। इसमें रुपस्थ ध्यान का स्वरुप, विधि, फल और अशुभ - ध्यान के त्याग का वर्णन है । 87 दसवें प्रकाश का विषय रुपातीत ध्यान तथा धर्मध्यान और उसका फल रहा है। ग्यारहवां प्रकाश इकसठ श्लोक - परिमाण है। इसका मुख्य विषय शुक्लध्यान है । इस प्रकाश के प्रारंभ में ग्रन्थकार ने धर्मध्यान का उपसंहार करके शुक्लध्यान का स्वरुप, भेद, प्रकार, अधिकारी, घातीकर्मों के नाम, तीर्थंकर के अतिशय, समुद्घात - प्रक्रिया और अन्त में सिद्धत्व के सन्दर्भ में व्याख्या की। अन्तिम प्रकाश में पचपन श्लोक तथा दो प्रशस्ति - श्लोक हैं। इसमें प्रारम्भ में चित्त के चार प्रकारों, आत्मा के तीन प्रकारों, ध्यानाभ्यास, गुरुसेवा और तीनों योगों की स्थिरता के लाभ का वर्णन है । तत्पश्चात्, मन स्थिर करने, जितेन्द्रिय बनने तथा प्रसन्नता के उपाय बतलाए गए हैं, अन्त में ग्रन्थकार द्वारा उपसंहार तथा अनुवादक के द्वारा प्रशस्ति का वर्णन है । इस प्रकार, योग के माहात्म्य को तथा योग-साधना की निष्पत्ति को बताने वाला यह एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । 397 हेमचन्द्र के साहित्य का यह संक्षिप्त परिचय 'जैनधर्म के प्रभावक आचार्य; तथा ‘योगशास्त्र'- सं. पद्मविजयश्री नामक पुस्तक के आधार पर किया है। दोनों ग्रन्थों में ध्यान - योग-विषयक विषय-वस्तु का प्रचुर रूप से प्रयोग हुआ है । अनेक श्लोकों में समानता तथा असमानता होने पर भी अभिप्राय की दृष्टि से ज्यादा मतभेद नहीं है । 'ज्ञानार्णव' ग्रन्थ की प्रस्तावना में बालचन्द्र शास्त्री ने लिखा है - "आचार्य हेमचन्द्रविरचित योगशास्त्र में भी ज्ञानार्णव के समान अनेक विषयों की चर्चा की गई है तथा उसका भी प्रमुख वर्णनीय विषय योग ही रहा है। इसी से उसका 87 'मोक्ष - श्रीसम्मुखीनस्य ....स्वार्थभ्रंशस्तनिश्चितः । । - वही, प्र. 9, श्लो. 1 - 16, पृ. 582–584 88 अमूर्त्तस्य चिदानन्द.. ..प्रयान्ति पदम व्यथम्।। - वही, प्र. 10, श्लो. 1 – 24, पृ. 585–591 मोदते मुक्तः । । वही, पृ. 11, श्लोक 1-61 ...गिरां श्रीहेमचन्द्रेण सा....... । । योगशास्त्र, प्र. 12, श्लो. 1-55 For Personal & Private Use Only 'स्वर्गापवर्गहेतु.. 'श्रुतसिन्धो.. Jain Education International 89 90 www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495