Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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सामान्यतया निर्विकल्प-स्थिति प्रत्येक प्राणी में सामान्य रुप से निहित है, परन्तु निर्विकल्प-बोध तो मात्र विवेकशील तथा आध्यात्म-विकास के अधिकारी को ही प्राप्त होता है। निर्विकल्प-स्थिति में उपशम-श्रेणी के समान विषय-विकार का दमन होता है, वे समाप्त नहीं होते, परन्तु निर्विकल्प-बोध में सकल कर्मों तथा विषय-विकारों का नाश होता है, जिसे क्षपक-श्रेणी के समान कहा जा सकता है। निर्विकल्प-स्थिति, अस्थायी अर्थात् आती-जाती रहती है, पर निर्विकल्प बोध स्थायी रहता है। व्यक्ति अपना आध्यात्मिक-विकास निर्विकल्प-स्थिति के माध्यम से नहीं, अपितु निर्विकल्प-बोध से ही कर सकता है। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि निर्विकल्प बोध कैसे होता है ?
कहा जाता है कि चित्तवृत्ति को किसी विषय, या साध्य से केन्द्रित करके रखने से निर्विकल्प बोध नहीं होता है। जैन तथा बौद्ध-परम्परा की मान्यता यह है कि मोक्ष या निर्वाण की इच्छा, आकांक्षा, चाह भी मोक्ष या निर्वाण में बाधा उत्पन्न करती है। ये सभी निजस्वरुप के प्रगट होने में बाधक तत्त्व हैं, जैसे – पशु में स्थित बाह्य-चंचलता को नियंत्रित करने के लिए उसे किसी एक स्थान पर बांध दिया जाता है। इसका मतलब यह नहीं कि उसकी चंचलवृत्तियाँ स्वभावतः समाप्त हो गई। यही बात हमारे मन पर भी लागू होती है। भिन्न-भिन्न साधना-पद्धतियों के माध्यम से मन के विकल्पों को समाप्त करने के लिए मंत्र जप, नाम जप आदि को स्वीकार किया गया, पर इन तथ्यों से मन की विकल्पता को निर्विकल्पता में परिवर्तित करने में असफल रहे, आंशिक रुप में विचार स्थिर जरुर हुए, परन्तु स्थायी निर्विकल्प-बोध को प्राप्त न कर सके। इस सन्दर्भ में डॉ. सागरमल जैन का कहना है –“साक्षीभाव अथवा ज्ञातादृष्टाभाव आत्मा या चित्त-सत्ता का स्वभाव है। यदि व्यक्ति की चेतना दृष्टाभाव में अवस्थित रहे, तो उसके दो परिणाम मिल सकते हैं। प्रथम तो यह कि चित्त के विकल्प समाप्त हो जाते हैं और यदि वे होते भी हैं, तो आत्मा या चित्त मात्र उनका साक्षी होता है, कर्ता नहीं होता। इस प्रकार,
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